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29 Jan 2017 · 1 min read

बरसों मीनाकारी की

वक़्त ने इंसानों के हक़ में , ये कैसी ग़द्दारी की
सादालौही सीख रही है, कुछ बातें अय्यारी की

बाज़ारों तक आते – आते ज़ंग लगा बेकार हुआ
हमने लोहे के टुकड़े पर, बरसों मीनाकारी की

पिंजरे से टकरा – टकराकर मेरे पर बेशक टूटे
लेकिन नींद हराम हुई है, रातों एक शिकारी की

यूँ ख़्वाबों के उजले चहरे, गहरी तकलीफें देंगे
हार से भी बदतर होती है, जैसे जीत जुआरी की

उम्र के घटते – घटते हमने, सौ सामान बढ़ाए हैं
दुनिया से रुख़्सत होने की, लेकिन क्या तैय्यारी की ?

जलकर खाकिस्तर होने तक, फूलों ने झेली हंस कर
बिजली ने मेरे गुलशन पर, जितनी शौलाबारी की

अपनी ही कमियों ने हमको, तोड़-तोड़ खाया ‘परवाज़’
लोगों का क्या है ! लोगों ने, पूरी खातिरदारी की

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