फ़ब्तियां
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लोग आए और हम पर फ़ब्तियां कसते रहे
फ़ब्तियां कसकर के हम पर देर तक हंसते रहे
कुछ ने हमको कुछ कहा, कुछ ने हमको कुछ कहा
ज़हर था जिनके दिलों में वो हमें डसते रहे
स्याह रातें जानती हैं कौन वो अपने हैं जो
ख़्वाब में आने से पहले आंख में बसते रहे
रोशनी किसने है देखी जश्न तक पहुंचा है कौन
धुंध से निकले हैं जो वो धूप में फंसते रहे
वक़्त ने की कोशिशें लाखों रुलाने की हमें
हम भी कोई कम न थे हम ‘वक़्त’ पर हंसते रहे
— शिवकुमार बिलगरामी