–दिशाहीन मानव–
गीतिका छंद–परिभाषा एवं कविता
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यह एक सममात्रिक छंद है;इसमें चार चरण होते हैं;प्रत्येक चरण में 26-26 मात्राएँ होती हैं;यति 14-12 या12-14 पर होती है।
प्रत्येक चरण की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं एवं चौबीसवीं मात्रा लघु होने पर छंद सरस हो जाता है।
मात्राएँ–
2122-2122-2122-212
ला-लला-ला-ला-लला-ला-ला-लला-ला-ला-लला।
गीतिका छंद की कविता–
दिशाहीन मानव–
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आज चारों ओर देखूँ,यम पहरा लगा हुआ।
काँप रहा है मनुज यहाँ,डर गहरा जगा हुआ।
आदमी को तो डराता,देख आदमी रहता।
कह बड़ा छोटा जताए,नेक स्वयं को कहता।
शोषण हरकोई करता जी,अगर मौका है मिले।
जो नहीं करें कम मिलते,हों जग चमन-सा खिले।
सोच समझ सकें न मानव,प्रतिपल बदलते यहाँ।
समझ न आती मनसा क्या,मंज़िल क्या चले कहाँ।
जीवन दिशाहीन कोई,सफल होता है नहीं।
सम कटी पतंग समझिए,ख़बर न जा गिरे कहीं।
सूक्ष्म-स्थूल ज्ञान बिन सुनो,ज्ञान अधूरा समझो।
नीव कच्ची उस मकां की,दमक कँगूरा समझो।
जीवन माया भरा हो,पर सकून मिले नहीं।
बिन बहार के समझ ज़रा,चमन कभी खिले नहीं।
जार चोर शोषक ना बन,केवल बन मानव ही।
शौक श्रम सबकर नियम से,बनकर रह मानव ही।
मन खुद का खुश करने को,और का न दुखा कभी।
घर खुद का ही भरने को,और का न मिटा कभी।
सीख प्रकृति से कुछ ले तू,प्यार से सब बाँटती।
पर बनाती भी यही है,आपदा से डाँटती।
कवि–राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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