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30 Jan 2022 · 6 min read

डॉक्टर कर्ण सिंह से एक मुलाकात

*संस्मरण*
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*डॉक्टर कर्ण सिंह से एक मुलाकात*
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डॉक्टर कर्ण सिंह से मेरी मुलाकात बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मालवीय-भवन में हुई थी । वह वहाँ पर एक व्याख्यान देने के लिए आए थे । मैं उस समय वहां एलएल.बी. कर रहा था । जब मुझे पता चला तो मैं भी उन्हें सुनने चला गया । डॉक्टर कर्ण सिंह को देखने और सुनने की उत्सुकता थी । राष्ट्रीय परिदृश्य में वह छाए हुए थे ।
यह 1984 की शुरुआत रही होगी । मेरे पास छात्रावास में सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर उत्तर प्रदेश का 3 दिसंबर 1983 का अंक था जिसमें “श्री अरविंद का आर्थिक दर्शन” नाम से मेरा एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ था । मैंने उस अंक की प्रति एक लिफाफे में रखी । उस पर अपना नाम तथा छात्रावास का पता 42 डॉक्टर भगवान दास छात्रावास अंकित किया । जब डॉक्टर कर्ण सिंह ने अपना व्याख्यान समाप्त किया और चलने को हुए ,तब मैंने निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया तथा अपना लेख लिफाफे से निकालकर उनके सामने रखा ।
“यह श्री अरविंद के आर्थिक दर्शन पर लेख है । आप पढ़ेंगे तो अच्छा लगेगा ।”
वह मुस्कुराए । चेहरे पर मुस्कान उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी । “जरूर पढ़ूंगा”- कहकर अखबार लिफाफे सहित उन्होंने ले लिया । उनकी आँखों में आत्मीयता थी। शायद वह कुछ और पूछना या कहना चाहते थे किंतु भीड़ ने उन्हें आगे की ओर बढ़ने के लिए विवश कर दिया । मुझे इस बारे में असमंजस था कि डॉक्टर कर्ण सिंह की कोई प्रतिक्रिया आएगी अथवा नहीं ? लेकिन 1 मार्च 1984 का लिखा हुआ उनका पत्र मुझे विश्वविद्यालय में छात्रावास के अपने कमरे पर कुछ समय बाद प्राप्त हो गया । पत्र में डॉक्टर कर्ण सिंह ने लिखा था :-
प्रिय रवि प्रकाश
आपने श्री अरविंद पर अपना जो लेख मुझे भेजा ,उसे मैंने रुचि से पढ़ा , धन्यवाद ।
भवदीय
कर्ण सिंह
पत्र के शीर्ष पर “विराट हिंदू समाज” अंकित था। बाँई ओर अध्यक्ष डॉ कर्ण सिंह ,संसद सदस्य लिखा हुआ था । पत्रांक अंकित नहीं था । दाँई ओर फोन संख्या 616067, कार्यालय :रामायण विद्यापीठ ,15 इंस्टीट्यूशनल एरिया ,लोदी रोड ,नई दिल्ली दिनांक 1 – 3 – 1984 लिखा हुआ था। लिफाफे पर प्रेषक के रूप में डॉक्टर कर्ण सिंह ,संसद सदस्य ,अध्यक्ष : विराट हिंदू समाज ,15 इंस्टीट्यूशनल एरिया ,लोधी रोड, नई दिल्ली 110003 अंकित था।
वस्तुतः 1984 की शुरुआत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राम मंदिर के प्रश्न पर राष्ट्रीय चेतना पैदा करने के काम में जुड़ा हुआ था। विश्व हिंदू परिषद का पुनर्गठन इसी योजना का एक अंग था । इसी दृष्टिकोण से “विराट हिंदू समाज” की स्थापना की गई थी । डॉक्टर कर्ण सिंह को उसका अध्यक्ष बनाया जाना सब प्रकार से उचित था । डॉक्टर कर्ण सिंह भारतीय दर्शन, संस्कृति और अध्यात्म के गहरे विद्वान थे । धर्मग्रंथों का उनका अध्ययन उच्च कोटि का था। वह एक अच्छे वक्ता थे । जम्मू कश्मीर के राज-परिवार की पृष्ठभूमि उन्हें राजसी वैभव से जोड़ती थी। उनकी संपूर्ण देश में एक अच्छी छवि थी तथा सही मायने में वह भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त व्यक्तित्व थे । डॉक्टर कर्ण सिंह ने प्रसन्नता पूर्वक “विराट हिंदू समाज” के अध्यक्षीय दायित्व को संभाला था । तभी तो उन्होंने मुझे पत्र लिखते समय न केवल “विराट हिंदू समाज” के लेटर पैड का प्रयोग किया अपितु उसी के लिफाफे में रखकर पत्र 50 पैसे का डाक टिकट लगा कर मुझे प्रेषित किया था।
यह पत्र एक प्रकार से अतिरिक्त उपलब्धि थी । वास्तविक उपलब्धि तो उस दिन डॉक्टर कर्ण सिंह का व्याख्यान सुनने के बाद ही प्राप्त हो चुकी थी। मंच पर दो महानुभाव कुर्सी पर विराजमान थे । एक डॉक्टर कर्ण सिंह दूसरे काशी नरेश महाराजा विभूति नारायण सिंह। दोनों की कुर्सियों के आगे एक छोटी सी मेज पड़ी थी। सामने विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संभवतः दरी पर बैठे हुए थे । इनकी संख्या विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की अपार संख्या को देखते हुए बहुत ज्यादा नहीं कही जा सकती थी । वैसे भी “मालवीय भवन” का वह हॉल एक नपी तुली सभा के लिए ही पर्याप्त था । आयोजक जानते थे कि इस प्रकार की शुष्क वार्ताओं में बहुत ज्यादा संख्या में छात्रों का हुजूम नहीं उतरेगा । हुआ भी ऐसा ही ।
सर्वप्रथम भाषण देने का अवसर काशी नरेश को प्राप्त हुआ । उन्होंने अपने संबोधन में डॉक्टर कर्ण सिंह को महाराजा कर्ण सिंह कहकर संबोधित किया । इस पर डॉक्टर कर्ण सिंह ने मुस्कुराते हुए एतराज जताया और कहा -“महाराजा नहीं ,भूतपूर्व महाराजा कहिए ! ”
किंतु काशी नरेश ने डॉक्टर कर्ण सिंह के कथन को स्वीकार नहीं किया । उन्होंने धारदार आवाज में खंडन के स्वर में कहा : ” राजा कभी भूतपूर्व नहीं होता । ए किंग नेवर डाइज । राजा हमेशा राजा रहता है।” उनके इस कथन पर डॉक्टर कर्ण सिंह ने फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । केवल मुस्कुरा कर रह गए । वास्तव में जहाँ एक ओर डॉक्टर कर्ण सिंह अपनी जगह पर सही थे और “भूतपूर्व महाराजा” कहे जाने का आग्रह ठीक ही कर रहे थे तो उसके पीछे राजशाही की समाप्ति ,प्रिवीपर्स की समाप्ति और राजा-महाराजा की उपाधि सरकार द्वारा समाप्त किए जाने के ऐतिहासिक वातावरण और पृष्ठभूमि-परक कारण थे ।डॉक्टर कर्ण सिंह राजनीति में सक्रिय थे । प्रजातंत्र के नए-नए प्रचलित स्वरूपों में उनकी गहरी पैठ थी । वह जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के पुत्र अवश्य थे लेकिन आजादी के बाद जो परिवर्तन हुए ,उन सबको वह अत्यधिक संलिप्तता के साथ देख रहे थे। राष्ट्रीय राजनीति के साथ उनका सामंजस्य था ।
दूसरी ओर काशी नरेश परंपरावादी परिवेश में अभी भी सिमटे हुए थे। अपने गहरे आध्यात्मिक तथा सामाजिक उच्च नैतिक मूल्यों के कारण काशी के लोकमानस में उनकी छवि देवता के समान थी । जनता उनका आदर करती थी । काशी का राजपरिवार हजारों साल पुराना था और भारतीय संस्कृति के वैभवशाली पक्ष का प्रतिनिधित्व करता था। वर्तमान काशी नरेश विभूति नारायण सिंह भले ही राजनीतिक उथल-पुथल के बीच सत्ता से हट चुके हों, रियासत का विलीनीकरण हो चुका हो ,राजा के पद की औपचारिकताओं से च्युत हो चुके हों , लेकिन वह एक राजा के समान ही गरिमा पूर्वक काशी में निवास करते थे तथा काशी की जनता भी यह जानते हुए भी कि अब राजा और प्रजा का पारिभाषिक संबंध समाप्त हो चुका है ,स्वयं को उनकी प्रजा तथा काशी नरेश को वास्तव में काशी नरेश के रूप में ही दिखती थी ।
डॉक्टर कर्ण सिंह ने अपने संबोधन में चुनाव के खर्चीले होने पर चिंता व्यक्त की थी । उन्होंने कहा कि चुनाव निरंतर खर्चीले होते जा रहे हैं । पैसा कहाँ से आएगा ? हम लोग तो अपने पास रखे हुए धन को खर्च करके किसी प्रकार चुनाव लड़ लेते हैं और उसमें जितने भारी-भरकम धन को खर्च करने की आवश्यकता होती है उसे वहन करने में सक्षम हैं लेकिन सर्वसाधारण किस प्रकार से चुनाव में खड़ा हो पाएगा ?
डॉक्टर कर्ण सिंह एक ईमानदार व्यक्ति के नाते भारतीय प्रजातंत्र की दुखती रग पर अपना हाथ रख रहे थे । सर्वविदित है कि चुनाव में भारी खर्च भ्रष्टाचार का मूल स्रोत बन जाता है और जो व्यक्ति लाखों करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव मैदान में उतरता है ,वह अगले दिन से ब्याज सहित उस धन की वसूली में लग जाता है । केवल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव का ही नहीं अपितु निचले स्तर पर ग्राम-प्रधान तथा नगरपालिका के चुनावों में भी भयावह रूप से धन का खर्च देखने को मिलता है , जिसने समूची राजनीतिक व्यवस्था को तोड़ कर रख दिया है । ग्राम प्रधान लाखों रुपए खर्च करके चुनाव में जीतते हैं और हारते हैं । ऐसे में प्रजातंत्र के वृक्ष से सुंदर फल कैसे उत्पन्न हो पाएंगे ? डॉ कर्ण सिंह का मूल प्रश्न यही था।
मैंने डॉक्टर कर्ण सिंह के चेहरे पर चिंता की लकीरें देखी थीं। वह काशी नरेश के साथ बैठकर अपने दिल की बात कह रहे थे। वास्तव में भारतीय परिदृश्य में यह दो महान व्यक्तित्व थे जो कतिपय उच्च मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते थे ।
अंत में इसी सिलसिले में एक बात और याद आ रही है । मुझे मेरे किसी सहपाठी ने बताया था कि काशी नरेश जहाँ भी जाते हैं तो बुलेट प्रूफ जैकेट पहन कर जाते हैं । यह बुलेट प्रूफ जैकेट शताब्दियों पुरानी है तथा काशी के राजपरिवार की परंपरागत धरोहर है । मैंने सोचा कि क्यों न काशी नरेश के बुलेट प्रूफ जैकेट पहनने की पुष्टि कर ली जाए । अब यह मुझे ध्यान नहीं कि यह डॉक्टर कर्ण सिंह की सभा के बाद प्रदर्शनी का अवलोकन करते समय की बात है अथवा किसी अन्य कार्यक्रम की यह बात है। काशी नरेश प्रदर्शनी का अवलोकन कर रहे थे और मैं सहज भाव से उनके बिल्कुल नजदीक तक पहुँच गया । जैसी कि मेरी योजना थी ,मैंने उनके शरीर पर बुलेट प्रूफ जैकेट की जांच करने के उद्देश्य से उनकी पीठ पर अपना हाथ स्पर्श किया । मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब मैंने महसूस किया कि मेरा हाथ किसी लोहे की वस्तु से टकराया है । अब इसमें कोई संदेह नहीं था कि काशी नरेश बुलेट प्रूफ जैकेट पहनते हैं ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
*लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा*
*रामपुर (उत्तर प्रदेश )*
*मोबाइल 99976 15451*

Language: Hindi
Tag: संस्मरण
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