जीवन की यह झंझावातें
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गीत.. 125
गीत…
जीवन की यह झंझावातें, कर देती हैं यूँ, मजबूर।
बन जाते हैं बिखरे पन्ने, पुस्तक के जैसे दस्तूर।।
एक कहानी गाथाएं बन, कैसे सदियों से विख्यात।
गर्म हवायें कर देती हैं, अक्सर बेमौसम बरसात।।
कौन देखता है सच्चाई, कर लेते सब हैं मंजूर।
बन जाते हैं बिखरे पन्ने, पुस्तक के जैसे दस्तूर।।
सम्बन्धों के सुचि धागे में, पड़ जाती है टेढ़ी गाँठ।
धीरे-धीरे होने लगता, इससे सबका मन है काठ।।
तस्वीरों के अपनेपन से, हो जाता है दर्पण चूर।
बन जाते हैं बिखरे पन्ने, पुस्तक के जैसे दस्तूर।।
बनने लग जाती दीवारें, कट जाते रागों के तार।
चिढ़ने लगते हैं हाथों में, खुशियों के कोई उपहार।।
पास हमेशा जो रहते थे, हो जाते हैं ऐसे दूर।
बन जाते हैं बिखरे पन्ने, पुस्तक के जैसे दस्तूर।।
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’