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20 Mar 2017 · 1 min read

गज़ल :– ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।।

गज़ल :– ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।।
बहर :- 2122–2122-2122

ख्वाब बन आँखों में अब वो छा रहे हैं ।
ज़ख्म मेरे ही मुझे सहला रहे हैं ।

मन्नतों में जो कभी मांगे हमें थे ,
आज क्यों नज़रें चुराकर जा रहे हैं ।

कर्ज हम रखते नहीँ ज्यादा किसी का ,
उनकी यादें तोल कर लौटा रहे हैं ।

कातिलाना है बड़ी उनकी अदायें ,
अब शहर में जुल्म बढ़ते जा रहे हैं ।

कत्लखानों में ज़रा मंदी हुई क्या ,
देखो वो गंगा नहा कर आ रहे हैं ।

देखिए दहलीज ये पानी में डूबी ,
आप ऐसे आँख क्यों छलका रहे हैं ।

गज़लकार :– अनुज तिवारी “इंदवार”

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