ग़म-ए-दिल….
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बेदर्द है, बेजान हैं
मेरे दिल को सबसे पहचान है
कभी टूट जाता है
कभी रूठ जाता है
पता नहीं क्यों यह मेरे शरीर में बेजान रह जाता है?
गम की तवारीख़
मेरे मन में लिखा है,
लाखों पन्नों में इसे
मैंने सजों कर रखा है,
पता नहीं कब काम आ जाए
हर गम कहीं दुहरा ना जाए
शायद इसी काम में आए |
तम में जीना चाहता नहीं मैं
गम को दूर करना चाहता हूँ मैं
कैसे करूँ?
क्या करूँ?
कुछ समझ में नहीं आता मुझे,
पर खोज लूँगा मैं
कोई ना कोई तरकीब गम से निपटने का,
सुदृढ़ करूँगा अपने आप को मैं |
ये दुनिया हमें जीने नहीं देगी
जब तक हम ना प्रयासरत होंगे,
है हमें जीतना जीवन को
अंधड़ में भी प्रकाश फैलाकर
और जीवन को गुलाम बनाकर |