ग़ज़ल
![](https://cdn.sahityapedia.com/images/post/d47f48bbf2a69d13fdad1a93bb15e7a7_ac5764c0d256bab948145200e472f634_600.jpg)
चाहत सी हो गयी है तेरे यूँ ख़ुमार की ।
पैमाना बन गया हूँ तेरे ऐतबार की।
लगने लगा है घर तेरा मैख़ाने की तरह I
रहती है तलब अब तो तेरे इंतज़ार की ।
मौसम भी इस तरह से आजकल ख़राब है ।
बारिश भी लग रही है दुश्मन बहार की ।
बुत बन गयी हैं चाहतें हमारी इस तरह ।
चलता हूँ लड़खड़ाती है राहें भी प्यार की ।
अब तो ‘महज़’ तुम्हारे सिवा ग़र कहीं रहूँ।
लगती है ज़िन्दगी ये हमारी उधार की ।