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5 Jan 2023 · 5 min read

कुंडलिया छंद की विकास यात्रा

कुंडलिया शब्द की उत्पत्ति ‘कुंडलिन’ या ‘कुंडल’ शब्द से हुई है।कुंडल अर्थ है- गोल अथवा वर्तुलाकार वस्तु। सर्प के बैठने की मुद्रा ‘कुंडली’ कहलाती है।जब वह बैठता है तो उसकी पूँछ और मुख आपस में एक दूसरे के पास दिखते हैं।कुंडलिया शब्द सर्प की इसी कुंडली की आकृति से लिया गया है क्योंकि इस छंद का आरंभ जिस शब्द से होता है,उसी शब्द से छंद का समापन भी करना होता है।इतना ही नहीं, दोहे के चतुर्थ चरण को रोले के प्रथम चरणांश के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो एक कुंडलीनुमा आकृति बनाने में सहायक होता है और सर्प की कुंडली की याद अनायास ही आ जाती है।
आरंभिक काल से लेकर आज तक कुंडलिया छंद के भाव और शिल्प को लेकर अनेक प्रयोग हुए हैं।जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने कुंडलिया छंद में नीति,अध्यात्म और जीवनानुभवों की बात की तो परवर्ती काल में इस छंद ने आम आदमी की पीड़ा को भी इसमें समेट लिया।एक समय ऐसा भी आया जब कुंडलिया छंद का उपयोग विभिन्न कवियों के दोहों के भाव-पल्लवन के लिए किया जाने लगा।यह संभवतः इसलिए हुआ होगा क्योंकि कुंडलिया छंद के शीर्ष में दोहा ही होता है और आगे के रोले वाले चारों पदों में उसी बात को विस्तार दिया जाता है।कबीर दास,रहीम दास, तुलसीदास और बिहारी लाल आदि के दोहों का भाव विस्तार अनेकानेक कवियों के द्वारा किया गया।बिहारी लाल के सुप्रसिद्ध दोहे का भाव पल्लवन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने कितने खूबसूरत ढंग से किया है ,वह द्रष्टव्य है-

सोहर ओढ़े पीत पट,श्याम सलोने गात।

मनौ नीलमणि शैल पर, आतप परयौ प्रभात।

आतप परयौ प्रभात,किधौं बिजुरी घन लपटी।

जरद चमेली,तरु तमाल,मैं सोभित सपटी।

पिया रूप अनुरूप,जानि हरिचंद विमोहत।

स्याम सलोने गात,पीत पट ओढ़े सोहत।।

आदिकाल से आधुनिक काल तक की कुंडलिया छंद की यात्रा में इसे मध्यकाल में उत्कर्ष प्राप्त हुआ। जब स्वामी अग्रदास,संत गंगादास, बाबा दीनदयाल गिरि, कवि ध्रुवदास, गिरिधर दास, राय देवी प्रसाद पूर्ण प्रभृति कवियों ने कुंडलिया छंद में काव्य रचना कर इस छंद को समृद्ध किया।गिरिधर दास की एक कुंडलिया जो प्रस्तुत है ,जो आम आदमी को जीवन जीने की कला सिखाती है-

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।

जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥

ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।

दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥

कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।

आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥

आधुनिक कुंडलियाकार नीति ,न्याय और अध्यात्म के साथ-साथ भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता और विद्रूपता को भी रूपायित करते हुए दिखाई देते हैं।कथ्य और तथ्य की नव्यता आज के कुंडलिया छंद की एक उल्लेखनीय विशेषता है जो आज के कुंडलियाकारों के छंदों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो अभिनव प्रयोग हुए हैं उसमें 24 मात्राओं वाले दोहा छंद तथा 24 मात्रिक रोला छंद के चरणों का विन्यास ही पृथक रूप में दिखाई देता है।मूल कुंडलिया छंद की तरह सभी में मुख और पूँछ समान रूप में विद्यमान रहते हैं अर्थात जिस शब्द से छंद का आरंभ होता है,उसी पर समापन भी।कुंडलिया छंद के अतिरिक्त ‘नव कुंडलिया छंद’ जिसमें दोहा+आधा रोला+ दोहा का संयोजन होता है। ‘नाग कुंडली’ भी एक अभिनव प्रयोग है।

नाग कुंडली में दोहा+ आधा रोला+दोहा+ रोला। इसमें दो बार दोहे का प्रयोग होता है और दोनों बार कुंडलिया छंद की तरह इसमें प्रत्येक दोहे का अंतिम चरण ,रोले के प्रथम चरण के प्रयुक्त होता है।प्रारंभ और समापन समान शब्द पर ही होता है।

अनूप कुंडलिया में तुकान्त सोरठा, आधा रोला और अंत में दोहे का प्रयोग किया जाता है। सोरठा छंद के प्रथम चरण की पुनरावृत्ति अंत में दोहे के चतुर्थ चरण के रूप में होती है। नवकुंडलिया राज छंद भी एक नूतन प्रयोग है। वैसे इस छंद का मात्रिक विधान पूर्णतः भिन्न है। इस छंद में 16,16 मात्राओं के 6 चरण होते हैं। इसमें प्रत्येक चरण के अंत में प्रयुक्त शब्द अगले चरण के आरंभ में प्रयोग किया जाता है। शब्द की पुनरावृत्ति का यह क्रम हर चरण में अंत तक होता है और समापन उसी शब्द पर होता है जिससे छंद को आरंभ किया जाता है।

कुंडलिया छंद का संक्षिप्त रूप कुंडलिनी छंद है ,जिसमें दोहा + आधा रोला प्रयोग होता है।शेष समस्त विशेषताएँ कुंडलिया छंद की तरह ही है। कुंडलिया के साथ प्रयोग का एक रूप शितिकंठी कुंडलिया भी है।इसमें दोहा और डेढ़ रोला छंद का प्रयोग किया जाता है।

वैसे कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो भी प्रयोग किए गए हैं वे साहित्य की आवश्यकता से अधिक कवियों की आचार्यत्व पद की लिप्सा अधिक लगते हैं क्योंकि कोई अभिनव प्रयोग साहित्य में वह स्थान और लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाया जो कुंडलिया छंद को मिला।

सम्प्रति कुंडलिया छंद सृजन को लेकर कवियों में एक उत्साह दिखाई देता है।अनेकानेक कुंडलियाकार न केवल कुंडलिया छंद का सृजन कर रहे हैं अपितु उनके कुंडलिया संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं। आज का कुंडलिया छंद एक नए तेवर में दिखाई देता है। ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो कुंडलिया छंद से अछूता हो। नवीन प्रतीक, बिंब और उपमान कुंडलिया के कथ्य को सुग्राह्य और बोधगम्य बनाते है। पिछले कुछ वर्षों में जो कुंडलिया संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनका विवरण निम्नवत है-

कहें कपिल कविराय (कपिल कुमार),कुण्डलिया कुंज ( राम औतार ‘पंकज’),कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर , कुंडलिया कानन और कुंडलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला),काव्यगंधा (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)मुझ में संत कबीर (रघुविंद्र यादव),कुण्डलियों का गांव (शिवानंद सिंह ‘सहयोगी’),सम्बंधों की नाव (राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’), कुण्डलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला),शिष्टाचारी देश में (तोताराम ‘सरस’), अब किसे भारत कहें ( डाॅ. रमाकांत सोनी), कुण्डलिया छंद के नये शिखर( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), संस्कृति के आयाम ( डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल),लक्ष्मण की कुंडलियाँ (लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला),मन में भरो उजास (सुभाष मित्तल ‘सत्यम’) कुंडलिया कौमुदी और कहे नलिन हरिदास (डाॅ .नलिन),सुधियों के भुजपास (आचार्य भगवत दुबे ),मुठभेड़ समय से (रामशंकर वर्मा),सरस कुंडलिया सतसई (रुद्र प्रकाश गुप्त ‘सरस’),शब्दों का अनुनाद (डाॅ . बिपिन पाण्डेय),मानक कुण्डलियां ( रघुविंद्र यादव),काक कवि की कुण्डलियां और कविताएँ (रामपाल शर्मा ‘काक ‘)समकालीन कुण्डलिया ( डाॅ. बिपिन पाण्डेय), बसंत के फूल (डॉ. रंजना वर्मा),इतनी सी फरियाद (राजपाल सिंह गुलिया ), कुण्डलिया सुमन (इन्द्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’),बाबा की कुंडलियाँ, पढ़ें प्रतिदिन कुंडलियाँ, कुंडलिया से प्रीत और कह बाबा कविराय ( बाबा वैद्यनाथ झा), जीवन राग (अशोक कुमार रक्ताले) ,भावों की उर्मियाँ ( शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’)।

इसके अतिरिक्त अन्यान्य कुंडलियाकार हैं जिन्होंने ने प्रचुर मात्रा में कुंडलिया छंद सृजित किए हैं और आज भी कुंडलिया- कोष को समृद्ध करने में लगे हुए हैं। हरिओम श्रीवास्तव, रविकांत श्रीवास्तव, श्लेष चंद्राकर, नीलमणि दुबे, पुष्प लता, नीता अवस्थी, नवनीत राय रुचिर ,शिवकुमार ‘दीपक’ रामेश्वर गुप्ता,अमित साहू आदि ऐसे ही कुंडलियाकारों के नाम हैं।

समय के साथ सामाजिक जरूरतों को अपने में समाहित कर समाज को एक सकारात्मक दिशा एवं सोच देना साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है और कुंडलिया छंद अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुंडलिया छंद अपनी विकास यात्रा में भाव एवं शिल्पगत परिवर्तन के अनेक पड़ाव देखे हैं। कथ्य एवं भावगत परिवर्तन की यह क्षमता ही इस छंद को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है।

डाॅ बिपिन पाण्डेय

Language: Hindi
Tag: लेख
3 Likes · 10 Comments · 223 Views
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