Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 10 min read

काव्य में अलौकिकत्व

काव्य का अलौकिकत्व सिद्ध करने के लिए रसाचार्यों ने रस को आनंद का पर्याय मानकर बड़े ही कल्पित तर्क प्रस्तुत किए। आदि रसाचार्य भरतमुनि ने जिन भावों, संचारी भावों, स्थायी भावों के संयोग से रसनिष्पत्ति का सूत्र गढ़ा था उन्होंने उसी सूत्र के टुकड़े कर डाले और कहा कि-
‘‘भाव तो लौकिक या जगत की अनुभूतियां हैं, जिनमें वे सारे लौकिक उपादन अंतर्निहित हैं, जिनके तहत एक भोजनभट्ट को मिठाई अच्छी लगती है, कृपण को धन अच्छा लगता है, दाता को दान देना रुचिकर है, यह सभी रुचिकर हैं।’’1
इसलिए इंद्रियज भोग का स्वप्न बहिर्मुखी है। वहां केवल अच्छा लगने से ही बात खत्म नहीं हो जाती। जिस वस्तु को देखकर अच्छा लगता है उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है, अपनाने की मर्जी होती है। यह वस्तु एक ही समय दस जनों के पास नहीं रह सकती। इसीलिए अच्छी लगने वाली वस्तु को लेकर लोगों में विरोध मच जाता है। परिणामतः ऐसी स्थिति में अच्छी लगने वाली वस्तु को अपने अधीन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ‘कहां तक अच्छी लगनी चाहिए’, इसकी एक सीमा निर्धारित करनी पड़ती है। ‘‘यह वस्तु-विचार ही अच्छा या बुरा लगने की कसौटी है।’’2
‘‘अच्छा लगने की अनुभूति के साथ विषय इस प्रकार अविच्छेद्य ढंग से विद्यमान रहता है कि उसे हटा देने से अच्छा लगना भी समाप्त हो जाता है, इस अच्छे लगने को बनाए रखने के लिए वस्तुओं को सभी में मेल-मिलाप से बांटने के लिए नियमों की आवश्यकता होती है। इन्हीं नियमों के ऊपर राष्ट्र प्रतिष्ठित है। यह एक तरफ जैसे विधिनिषेध या नैतिकता का क्षेत्र है, दूसरी तरफ राष्ट्र-संयम या राज्य प्रशासन का क्षेत्र है, धर्म या कानून का क्षेत्र है। अच्छा लगना, बुरा लगना या व्यक्तिगत अनुभूति के द्वारा काम की अच्छाई या बुराई की कसौटी यहां स्वतंत्र है।’’3
‘‘काव्य के संबंध में ऐसी कोई बात नहीं, क्योंकि यहां वस्तुओं की ऐसी कोई भीड़ नहीं, यहां विश्राम आनंदमय, रसमय, माधुर्यमय है। काव्य के रसास्वादन में कोई द्वंद्व नहीं है। क्योंकि यहां रस का विश्राम है। वस्तु को लेकर यहां कोई छीना-झपटी नहीं है। इसलिए अन्य ऐंद्रिक विषयों के संदर्भ में जो अर्थ निकलता है, यहां अच्छा या बुरा कहने से वह अर्थ नहीं निकलता।’’1
काव्य में अलौकिकत्व के बारे में रसाचार्यों द्वारा दिए गए उक्त तर्कों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि-
1. लौकिक जीवन के सारे-के-सारे घटनाक्रम आनंदमय, रसमय, माधुर्यमय इसलिए नहीं होते, क्योंकि लौकिक भावानुभूति इंद्रियज भोग से युक्त होने के कारण स्वार्थ, मोह, लालच, प्रभुसत्ता, आमोद-प्रमोद, भोग-विलास आदि के व्यापार को जन्म देती है, जिससे पनपी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक विसंगतियों के निराकरण के लिए विधिनिषेध, नैतिकता, राष्ट्र-संयम, राज्य, प्रशासन, कानून आदि की आवश्यकता पड़ती है। कुल मिलाकर लौकिक भावानुभूति सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक क्षेत्र में द्वंद्व को जन्म देती है।
2. जहां तक काव्यानुभूति का प्रश्न है, यह अनुभूति अच्छे-बुरे, लोभ-लालच, छीना-झपटी आदि से सामाजिकों को मुक्त रखती है, क्योंकि यहां द्वंद्व नहीं होता। इसका आस्वादन सामाजिकों के मन को आनंद, रस और माधुर्य से सिक्त करता है।
काव्य की आलौकिकता के संदर्भ में दिए गए उक्त तर्कों का सीधा –सीधा संबंध काव्य-सामग्री के आस्वादन और उसके आस्वादक से जोड़ा गया है। सतही तौर पर देखने या अनुभव करने से यह तर्क बड़े ही सारगर्भित और वैज्ञानिक लगते हैं, क्योंकि ऐसे तर्कों का तानाबाना ‘साधारणीकरण’ के सिद्धांत को और अधिक पुष्ट ही नहीं करता, उसे जीवंत और प्रासंगिक भी बनाता है। लेकिन अलौकिकता के संदर्भ में जब हम आस्वादक का मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करने बैठते हैं, तो काव्य के संदर्भ में तैयार की गई ‘अलौकिकता’ की सारी-की-सारी किलेबंदी खोखली, बेबुनियाद और बेजान लगने लगती है।
कोई भी सुधी और वैज्ञानिक समझ रखनेवाला मनुष्य इस तथ्य को भली-भांति जानता है कि काव्य-सामग्री के रूप में चाहे मंच पर अभिनय करने वाले नट-नटी हों, या काव्य संबंधी पुस्तकें, ये सब लौकिक वस्तुएं हैं, और इनके द्वारा अभिव्यक्त भाषा, नीति, शील आदि अलौकिक न होकर लौकिक ही है, जिसका किसी भी प्रकार के आश्रय को बोध बिना इंद्रियों के या इन्द्रियभोग के संभव नहीं।
रही बात काव्य-सामग्री के आस्वादन अर्थात् इंद्रिय-भोग के उपरांत एक सामाजिक के रस-सिक्त, आनंद-सिक्त, माधुर्य-सिक्त होने की, तो इस प्रकार के आनंद की अवस्था [ जिसमें रसानुभूति सिर्फ सुखात्मक, आनंदस्वरूप हो जाती है अर्थात् सुख और दुख के द्वंद्व से परे ] हमारे सामाजिक जीवन में भी बहुधा देखने को मिल जाती है। अमर क्रांतिकारी भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के चेहरे पर फांसी के समय भी वह ओज, वह माधुर्य, वह सुखानुभूति आलोकित थी, जिसके दर्शन जटिल द्वंद्व, संघर्ष और भय के समय काव्य के आस्वादक के चेहरे पर शायद ही मिलें। तब क्या इस सुखात्मक आनंद-स्वरूप को अलौकिक मान लिया जाये? आर्कमिडीज, न्यूटन जैसे अनेक वैज्ञानिकों के ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, जिनके सुखात्मक आनंद-स्वरूप के दर्शन समझदार लोग तो कर ही सकते हैं, लेकिन जो साहित्य या काव्य को तर्क, शील, नैतिकता, द्वंद्व का विषय ही नहीं मानते, ऐसे कथित आनंदवादियों के समक्ष किसी भी प्रकार की बहस उठाना ही निरर्थक होगा। उन्हें तो कथित अलौकिकता की पूंछ पकड़ कर रस की वैतरिणी पार करनी है, सो कर रहे हैं, या करते रहेंगे।
रसवादियों के इन तर्कों या तथ्यों से इतर चाहे काव्य-सामग्री हो या उस काव्य-सामग्री के आस्वादन से उत्पन्न किसी भी आश्रय के मन में रस आनंद या माधुर्य का आलोक, अलौकिक नहीं, लौकिक ही है। इसके निम्न कारण हैं-
1. रस के कथित पंडित तर्क देते हैं कि “अपने इष्ट मित्र की हानि, मृत्यु आदि पर हमें शोक होता है और अपने प्रति शत्रुता का भाव देखकर हमें अन्य व्यक्ति पर क्रोध आता है, इन भावों की सुखात्मक-दुःखात्मक अनुभूतियों के तानेबाने से ही हमारा जीवन बुना है। भावों की यह अनुभूति लौकिक है।’’
भावों की अनुभूति के इस लौकिकस्वरूप के दर्शन क्या हमें काव्य में नहीं होते? यदि नहीं होते हैं तो राम का सीता के प्रति विलाप, लक्ष्मण मूच्र्छा के समय अबाध क्रन्दन, एक-दूसरे को परास्त करने की कूटनीतिक चालें, रामायण के विभिन्न पात्रों की दुःखात्मक-सुखात्मक अनुभूतियों का विषय किस प्रकार बन गईं? क्या पूरा-का-पूरा महाभारत स्वार्थ, सत्तामद, कुनीति, व्यभिचार, दंभ, अहंकार की अभिव्यक्ति का विषय नहीं बना है।
2. रसाचार्य मानते हैं कि भावानुभूति में हमें अपने प्रिय पात्र व इष्ट के निधन पर जो शोक की अनुभूति होती है, वह दुःखात्मक होती है। कामदेव के भस्म हो जाने पर, काव्य में वर्णित शोक-भाव भी कामदेव की पत्नी रति का शोक-भाव न रहकर सामान्य विशुद्ध शोक स्थायीभाव होता है। इस प्रकार विभावादि के साधारणीकरण हो जाने पर हमें विशुद्ध रूप में शोक स्थायीभाव को, वैयक्तिक संबंधों से परे जो रसानुभूति होती है, वह आनदंस्वरूपा है।
काव्य के विशुद्ध स्थायीभाव शोक के द्वारा जिस तरह से विभावादि का साधारणीकरण परोसकर इसकी रसानुभूति को आनंदस्वरूपा बताया है, सर्वप्रथम तो शोक और विशुद्ध शोक का हमारे पास कोई पैमाना नहीं है और इस तथ्य की भी कोई प्रामाणिकता सिद्ध नहीं है कि भावानुभूति प्रिय पात्र या इष्ट के निधन पर मात्र दुःखात्मक ही होती है। पाकिस्तानी सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए अमर शहीद अब्दुल हमीद की मृत्यु पर भारतवासियों ने शोकग्रस्त होने के बजाय उनके साहस का ही गुणगान अधिक किया। तब क्या उक्त संदर्भ में विभाव का कथित साधारणीकरण स्थायीभाव शोक के माध्यम से वैयक्तिक संबंधों से परे की कोई रसानुभूति थी, जो आनंदस्वरूपा होकर उद्बुद्ध हुई या कुछ और?
ठीक इसी प्रकार अक्सर यह देखा गया है कि किसी नाव के डूब जाने, बस आदि के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर सैकड़ों लोग यात्रियों की सहायता के लिए उमड़ पड़ते हैं, सैकड़ों नर-नारी घायल और बिलखते लोगों को देखकर इतने शोकग्रसत हो जाते हैं कि उनकी आंखों से आंसुओं का ज्वार घंटों नहीं थमता, जबकि वह उन दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर सैकड़ों लोग यात्रियों की सहायता के लिए उमड़ पड़ते हैं, सैकड़ों नर-नारी घायल और बिलखते लोगों को देखकर इतने शोकग्रस्त हो जाते हैं कि उनकी आंखों से आंसुओं का ज्वार घंटों नहीं थमता, जबकि वह उन दुर्घटनाग्रस्त यात्रियों के न तो सगे-संबंधी होते हैं और न इष्ट मित्र। ऐसे में विभावादि का क्या कथित साधारणीकरण नहीं होता। घायलों और कराहते लागों के प्रति आई आश्रयों में करुणा और दया की स्थिति विशुद्ध और पवित्र नहीं होती? यदि होती है तो इस स्थिति को हमारे रसाचार्य रसानुभूति के कथित आनंदस्वरूप में क्यों नहीं रख लेते? क्योंकि उपरोक्त सारे के सारे घटनाक्रम में करुणा न तो किसी व्यक्ति पर अवलंबित है और न इसका संबंध किसी व्यक्तित्व के संकुचित रूप से है। बारीकी से सोचा जाए तो यहां ममत्व-परत्व का क्षुद्रत्व भी उजागर नहीं होता।
आचार्य शुक्ल रस-दशा के जिस चरमोत्कर्ष का जिक्र रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह तथा व्यक्तित्व के परिस्ताकर के माध्यम से करते हैं, वह सब भी यहां मौजूद है, तब क्या यह भावानुभूति कथित रूप से लोकोत्तर होकर रसानुभूति के आनंदस्वरूप में अलौकिक नहीं हो जाती? अलौकिकता के संदर्भ में यदि यही अलौकिकता के लक्षण है तो आखिर लौकिक क्या है ?
3. रस के पंडित काव्य की अलौकिकता के सदंर्भ में एक यह तर्क भी देते हैं कि चूंकि रस मनोवेगों का लौकिक अनुभव नहीं, उसका आस्वाद है, अतः रसानुभूति में सत्व गुण की सत्ता रहती है, जबकि भावानुभूति में रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण की मात्रा रहती है। कुछ भावों की अनुभूति में रजोगुण प्रधान रहता है, कुछ में सतोगुण, कुछ में तमोगुण। लेकिन रसानुभूति में सत, रज, तम की प्रथम सत्ता लोप हो जाती है और सारे भाव सात्विक हो जाते हैं।
काव्य के आस्वादन को मनोवेगों का लौकिक अनुभव न मानकर, रसानुभूति की सात्विक गुण सत्ता मानने के पीछे हमारे रसाचार्यों ने कुछ प्रामाणिक आस्वादकों के उदाहरण देकर रसानुभूति के अलौकिकत्व को यदि सिद्ध किया होता तो यह तथ्य सहज रूप से सबकी समझ में आ जाते कि वे जिसे लौकिक जगत की भावानुभूति का नाम देने की कोशिश कर रहे हैं, वह भी रसानुभूति ही है और लौकिक रसानुभूति में यदि सत, रज, तम की प्रथम सत्ता का आस्वादकों को कथित अनुभव होता है तो काव्य के आस्वादकों को भी साहित्य का आस्वादन रज, तम, सत गुण की पृथक् सत्ता का अनुभव निस्संदेह कराता है।
यदि रसानुभूति में रज, तम, सत की सत्ता का लोप हो जाता है तथा सारे भाव सात्विक गुणधर्म अपना लेते हैं तो क्या कारण है कि जिस रीतिकालीन काव्य-परंपरा को डॉ. राकेश गुप्त जैसे प्रसिद्ध रसमीमांसक भाव एवं अलंकार का श्रेष्ठ साहित्य, जिसमें कल्पना का वैभव, अर्थगर्भित शब्दों का सुंदर चयन एवं काव्य रसिकों के हृदय को चिरकाल तक रस-सिक्त करने वाली काव्य परंपरा मानते है,1 उसी रीति काल का आस्वादन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवदी को घृणा के भावों से सिक्त कर डालता है, कवि श्री सुमित्रानंदन पंत इसे भक्ति के नाम पर नग्न शृंगार का निर्लज्ज चित्रण अनुभव करते हैं। पं. कृष्ण बिहारी मिश्र, श्री प्रभुदयाल मीतल एवं डॉ. नगेंद्र जैसे सहृदय और सुधी रसमर्मज्ञ रीतिकालीन काव्य में अलौकिकता के दर्शन करने के बजाय लौकिकता के ही दर्शन करते हैं।2
क्या रस के पंडित उक्त तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध कर सकेंगे कि उक्त आस्वादकों की रसानुभूति दुःखात्मक और सुखात्मक भवानुभूतियों से अलग केवल सुखात्मक आनंदस्वरूप किस प्रकार है? जबकि इसमें प्रिय और कटु की भावानुभूति विभिन्न आस्वादकों में पूरी तरह मौजूद है।
इसीलिए कथित अलौकिकता का ताना-बाना सिर्फ इसी संदर्भ में प्रासंगिक है जबकि भावानुभूति और रसानुभूति को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखने के बजाय, ऐसे आस्वादकों का आनंदस्वरूप बना दिया जाए, जिन्हें रसानुभूति या भावानुभूति के लिए प्रामाणिक रूप से सिद्ध करने की कोई आवश्यकता न पड़े।
सच बात तो यह है कि रसाचार्यों ने रसानुभूति के आनंदस्वरूप, माधुर्यमय और अलौकिक इसलिए कहा क्योंकि काव्य के आलंबनविभावों के धर्म अर्थात् उनके क्रियाकलाप से न तो आस्वादकों को यह खतरा होता है कि काव्य में वर्णित पात्र जब क्रोध की मुद्रा में हाथों में तीर, तलवार, बंदूक लिए होते हैं तो वह आस्वादक पर प्रहार कर सकते हैं और न उन्हें यह लगता है कि काव्य की नायिका, काव्य के नायक के गले में बांहें डालने के बजाय आस्वादकों के गले में बांहें डालने लग जाएगी। ठीक इसी प्रकार मंच पर अभिनय करने वाले नट-नटी के बारे में वे भी भली-भांति जानते हैं कि उनका प्रेम-प्रदर्शन उन्हीं के बीच चल रहा है। इसलिए इसे भले अलौकिकता से विभूषित कर दिया जाए, लेकिन यदि किसी आस्वादक की ओर यही नटी-प्रेम का इजह़ार करने लगे तो यह कथित अलौकिक प्रेम, तुरंत लौकिक प्रेम में तब्दील हो जाएगा।
काव्य के संदर्भ में अलौकिकता की सारी दलीलें इसलिए भी बेबुनियाद और लौकिक ही हैं क्योंकि यदि काव्य का आस्वादन अलौकिक होता तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को इसे गठरी में बांध्कर नदी में फेंकने की जरूरत न पड़ती। अंग्रेज प्रेमचन्द की ‘सोजे सावन’ से इतने बौखलाए न होते कि उसे जब्त करना पड़ता। रूस की साम्यवादी सरकार ने कई ऐसे लेखकों को यातनाएं दीं, फांसी पर लटकाया, जिनकी कृतियों में उन्होंने रसानुभूति, सुखात्मक-आनंद के बजाय साम्यवाद के विरोध की बारुदी गंध महसूस की।
अस्तु, हमारी विचारधराओं से निर्मित रागात्मक चेतना ही हमें किसी काव्य के आस्वादन को कथित रसानुभूति, सुखात्मक आनंद और माधुर्य की ओर ले जाती है। जब किसी काव्य-कृति के आस्वादन से हमारी रागात्मक चेतना को खतरे होते हैं तो उस कृति के आस्वादनोपरांत हम उस कृति के प्रति कथित भावानुभूति जैसा व्यवहार करने लगते हैं अर्थात् अन्य सांसारिक वस्तुओं की तरह वह भी हमें कटु, तुच्छ, घृणास्पद और अवांछनीय लगने लगती है।
किसी व्यक्ति-विशेष, वर्ग-विशेष, संप्रदाय-विशेष पर लिखी गई काव्यकृति आस्वादकों के सामाजिक मूल्यों, व्यक्तिगत आस्थाओं को पुष्ट करती है तो वह आस्वादक इसमें रस, आनंद, माधुर्य आदि का अनुभव करते हैं। यदि वही काव्यकृति आस्वादकों के जीवनमूल्यों, उनकी रागात्मकता के विरुद्ध जाती है तो वे उससे सिर्फ घृणा, असंतोष, आक्रोश, विरोध्, विद्रोह और क्रोध का ही अनुभव प्राप्त करते हैं।
अतः यह बात तर्कपूर्वक कही जा सकती है कि काव्य का आनंद, रस, माधुर्य, सात्विक भावों का ताना-बाना एकपक्षीय और अधूरा ही नहीं, बल्कि लौकिकता के उन सारे गुणों को समाहित किए हुए हैं जिन्हें रसाचार्यों ने अलौकिक कहा है। काव्य में अलौकिकता जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। काव्य और उसका आस्वादन भी लौकिक जगत की लौकिक घटना या वस्तु है।
सन्दर्भ –
1. भा.का.सि., पृष्ठ-163, 164, 165
2. वही पृष्ठ-164 , 165
3. कृष्ण काव्य और नायिकाभेद, डॉ. राकेश गुप्त, पृष्ठ-44
———————————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630

Language: Hindi
Tag: लेख
397 Views
You may also like:
गीत-1 (स्वामी विवेकानंद जी)
गीत-1 (स्वामी विवेकानंद जी)
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
बालगीत :- चाँद के चर्चे
बालगीत :- चाँद के चर्चे
Kanchan Khanna
सत्य विचार (पंचचामर छंद)
सत्य विचार (पंचचामर छंद)
Rambali Mishra
रावण के मन की व्यथा
रावण के मन की व्यथा
Ram Krishan Rastogi
हे देश मेरे महबूब है तू,
हे देश मेरे महबूब है तू,
Satish Srijan
बाल हैं सौंदर्य मनुज का, सबके मन को भाते हैं।
बाल हैं सौंदर्य मनुज का, सबके मन को भाते हैं।
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
💐प्रेम कौतुक-388💐
💐प्रेम कौतुक-388💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
"Teri kaamyaabi par tareef, tere koshish par taana hoga,
कवि दीपक बवेजा
✍️आदमी ने बनाये है फ़ासले…
✍️आदमी ने बनाये है फ़ासले…
'अशांत' शेखर
तिरी खुबसुरती को करने बयां
तिरी खुबसुरती को करने बयां
Sonu sugandh
न रोजी न रोटी, हैं जीने के लाले।
न रोजी न रोटी, हैं जीने के लाले।
सत्य कुमार प्रेमी
रावण, परशुराम और सीता स्वयंवर
रावण, परशुराम और सीता स्वयंवर
AJAY AMITABH SUMAN
करना धनवर्षा उस घर
करना धनवर्षा उस घर
gurudeenverma198
तू नहीं तो कौन?
तू नहीं तो कौन?
bhandari lokesh
बाल कहानी- बाल विवाह
बाल कहानी- बाल विवाह
SHAMA PARVEEN
“जिंदगी अधूरी है जब हॉबबिओं से दूरी है”
“जिंदगी अधूरी है जब हॉबबिओं से दूरी है”
DrLakshman Jha Parimal
तुममें हममें कुछ तो मुख्तलिफ बातें हैं।
तुममें हममें कुछ तो मुख्तलिफ बातें हैं।
Taj Mohammad
दर्द ने हम पर
दर्द ने हम पर
Dr fauzia Naseem shad
ये दिल
ये दिल
shabina. Naaz
मकर पर्व स्नान दान का
मकर पर्व स्नान दान का
Dr. Sunita Singh
हम उलझते रहे हिंदू , मुस्लिम की पहचान में
हम उलझते रहे हिंदू , मुस्लिम की पहचान में
श्याम सिंह बिष्ट
होली के त्यौहार पर तीन कुण्डलिया
होली के त्यौहार पर तीन कुण्डलिया
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
प्रेम की परिभाषा
प्रेम की परिभाषा
Shivkumar Bilagrami
जब तक रहेगी ये ज़िन्दगी
जब तक रहेगी ये ज़िन्दगी
Aksharjeet Ingole
मुक्तक
मुक्तक
प्रीतम श्रावस्तवी
■ ठीक नहीं आसार
■ ठीक नहीं आसार
*Author प्रणय प्रभात*
नया सबेरा
नया सबेरा
Shekhar Chandra Mitra
Tu itna majbur kyu h , gairo me mashur kyu h
Tu itna majbur kyu h , gairo me mashur kyu...
Sakshi Tripathi
वचन मांग लो, मौन न ओढ़ो
वचन मांग लो, मौन न ओढ़ो
Shiva Awasthi
*समझो बैंक का खाता (मुक्तक)*
*समझो बैंक का खाता (मुक्तक)*
Ravi Prakash
Loading...