कमज़ोर सा एक लम्हा

एक कमज़ोर सा लम्हा,दे गया उम्र भर की सज़ा।
बेचैन दिल हर घड़ी,जीवन बन गया एक क़ज़ा।
कहते भी तो हम यारो ,किसी से कैसे हम कहते।
कैसे कट रही है ये जिंदगी,बस दर्द सहते सहते।
क्यों भूल कर बैठ गये है हमें,वो याद आने वाले,
कितने जहरीले थे वो तीर,जो थे निशाने वाले।
कभी किसी को इतना,चाहना भी अच्छा नहीं होता।
बावफा हो,इतना भी कोई , यहां सच्चा नहीं होता।
सुरिंदर कौर