‘अकेलापन’
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भ्रान्तियों की धूप मेँँ, था,
सत्य क्यों, कुम्हला गया।
हर कोई अपना लगा था,
दिल को जो, बहला गया।।
धूल जब, दर्पण से उतरी,
हो गया कुछ, चकित सा।
भ्रम सँजो रक्खे थे जो, उर,
सबको था, झुठला गया।।
तिमिर-पथ व्याकुल, व्यथित हो,
मुझको यूँ, देखे है क्यूँ।
जब उजाला मन का, नख-शिख,
मुझको था, नहला गया।।
खेल “आशा” और निराशा का,
निरन्तर यूँ चला,
याद वो आया बहुत, जो,
दिल को था, ठुकरा गया।।
दे गया अवसर स्वयं से,
बात का, पहचान का।
इक अकेलापन भी, उफ़,
क्या-क्या नहीं, सिखला गया..!
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