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21 Jul 2017 · 1 min read

समर्पण

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

अन्त: रमती थी उसमें निष्ठा की पराकाष्ठा,
कभी स्वयं ईश के सर चढ कर इठलाता,
या कभी गूँथकर धागों में पुष्पगु्च्छ बन इतराता,
भीनी सी खुश्बु देकर मन मंत्रमुग्ध कर जाता,
मुरझाते ही लेकिन, पाँवों तले बस यूँ ही कुचला जाता!

जिस माली के हाथों समर्पित था जीवन,
प्रथम अनुभव छल का, उस माली ने ही दे डाला,
अब छल करने की बारी थी अपने किस्मत की,
रूठी किस्मत ने भी कहर जमकर बरपाया,
रंगत खोई, खुश्बु अश्कों में डूबी, विवश खुद को पाया!

निरीह पुष्प की निष्ठा, शायद थी इक मजबूरी,
पूर्ण समर्पित होकर ही अनुभव सुख का वो पाता,
ज्यूँ प्रीत में पतंगा, खुद आग में जलने को जाता,
असंदिग्ध, श्रेष्ठ रही उस पुष्प की सर्वनिष्ठा!
जीवन मरण उत्सव देवपूजन, शीष पुष्प ही चढ पाता।

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

Language: Hindi
773 Views
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