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5 Dec 2016 · 1 min read

दास्तान-ए-सफ़र-ए-ज़िन्दगानी

‘ऋतु’आ चुकी कब की ,‘शीत’अब आयी है।

सोचकर समझकर बहुत डरकर भी,लिखने को कलम उठायी है।।

अश्क सूख गये चुभन तीखी धुंधला गये धुंध में,
मैने जब भी जमाने को हाल-ए-दिल सुनायी है।

तेरी हसीं रात का ख़्वाब तक न बन सका मैं,
इस कदर रात को सेंध तूने मेरे ज़ेहन में लगायी है।

डरता हूँ ख़्वाब में भी मिलकर न बिछड़ जाऊँ,
ख़ुद नहीं सोया मैंने सिर्फ बिस्तर को ही सुलायी है।

दर्द का दीदार दिन में करके दुहाई देता है ये दिल,
मुझे रुला लेती ऐ हमनशीं सिलवटों को क्यूँ रूलायी है।

जो शाम बोझिल हो गयी थी तेरा दामन छूटते ही
आज यारों ने मयख़ाने में उस रंगीन शाम को बुलायी है।

तेरे अक्श से पीछा छूट जाए शायद नशे के दरम्याँ
कोई कसर न छोड़ी खुद को मैने जाम बहुत पिलायी है।

खुदा का कहर कहूँ या मेहरबानी मान लूँ मोहब्बत तेरी
भूलना जितना चाहा यादों ने तेरी उतनी ही रुलायी है।

दास्तान-ए-सफर-ए-जिन्दगानी और बयां करूँ गर अपनी
वो इल्जाम झूठा होगा,कि वजह से मेरी,नमी तेरी आंखों पर छायी है।

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