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2 Sep 2018 · 1 min read

कविता

खामोशी
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संवेगों की मौन व्यथाएँ मूक भाव अभिव्यक्ति है दमित चाह ज्यों बंद यौवना चुप्पी साधे दिखती है।

कलकल स्वर में निर्झर बहता
विरह वेदना कह जाता
काँटों से घिर कर गुलाब
मौन बना सब सह जाता।

दुनिया शब्दों को सुनती है
खामोशी की व्यथा नहीं
अंतर्द्वंद्व में जलता है मन
शब्दों में ये बँधा नहीं।

मन के तहखाने चुनी गईं
ज़िंदा लाशें सपनों की
कुछ घुटती सांसें कैद हुईं
कुछ बेरहमी अपनों की।

बेदर्द ज़माना क्या जाने
खामोशी कितनी गहरी है
शब्दों में राज़ नहीं छिपते
खामोशी मन की प्रहरी है।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

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