मुक्तक
“ अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर,
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर,
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर,
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर “
“ अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर,
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर,
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर,
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर “