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25 May 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

काफ़िया-आत
रदीफ़- करती है
बह्र- 1222 1222 1222 1222

हया से मुस्कुराकर वो नज़र से बात करती है।
पिला कर जाम नज़रों का सुहानी रात करती है।

बहारों से चुरा खुशबू लगाकर इत्र चंदन का
महकती वादियों में हुस्न की बरसात करती है।

घनेरी जु़ल्फ़ का साया घटा बन नूर पर छाया
शराबे-हुस्न उल्फ़त में कयामत मात करती है।

बला की शोखियाँ देखीं हटाकर जुल्फ़ का पहरा
चला खंजर निगाहों से अजब आघात करती है।

चमक खुद्दारी’ की मुख पर अधर से फूल झरते हैं
लबों पर साधकर चुप्पी बयाँ ज़ज़्बात करती है।

नज़र जब रूप पर पड़ती मैं’ ज़न्नत भूल जाता हूँ
मयकदा मरहबा रुख़्सार पुलकित गात करती है।

अदा भी कातिलाना है ज़फ़ा भी लूटती ‘रजनी’
मुहब्बत भी अता मुझको ग़ज़ब सौगात देती है।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी।
संपादिका-साहित्य धरोहर

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