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22 Mar 2018 · 1 min read

मुहब्बत

बह्र-2122 1212 22
काफ़िया-ओं
रदीफ़-में

“मुहब्बत”
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रोज़ आते रहे ख़्यालों में।
गुल महकते रहे किताबों में।

मुस्कुराने का’ दौर आया है
गीत छेड़ा गया बहारों में।

ये मुलाकात बस बहाना है
बात होती रही इशारों में।

हुस्न का नूर क्या कहूँ यारों
फूल महका हुआ फ़िजाओं में।

ज़ुल्फ़ में कैद चाँद सहमा सा
छाँव पाता छुपा घटाओं में।

मैं बहकता रहा मुहब्बत में
वो समाते रहे निगाहों में।

जाम अधरों से पी रहा “रजनी”
ज़िक्र है आपका दिवानों में।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर

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