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9 Mar 2018 · 2 min read

ढहती मूर्तियाँ

ढहती मूर्तियाँ

विषैली हवा चली है
चींटियाँ कतारें बना रही हैं
होने वाली है बारिश विषाक्त
चिड़ियाँ भी घरों को लौट रही हैं

वे जिनको मरती दबती कुचली हुए रूह नहीं दिखतीं
जिनको क़ीमती गाड़ियों के नीचे आए लोग नहीं दिखते
जो किनारे बैठे जूता सिलते मोची को तिरस्कृत करते
भीख माँगते बच्चों को देख मोड़ लेते हैं अपनी नज़र
जो व्यस्त थे आज़ादी के मायने बदलने में
और वे जो फ़र्राटे से अंग्रेज़ी में गलियाँ दे रहे थे

लहू में जिनके शराब और चिलम जम गया है
दिल और दिमाग में ताले पड़ चूके हैं
जिनकी बिसात मात्र पाँच प्रतिशत से ज़्यादा नहीं
सब इकट्ठा होने लगे हैं
आशंकाएँ घिरने लगी हैं

लगता है कोई मर गया है
धीरे-धीरे मातम पसर रहा है
अचानक चिटियाँ, दीमक, मुर्गी, कुत्ते, बिल्ली
फिर से इकट्ठा हो रहे है

तोड़ने लगे हैं इतिहास को
चाटने लगे हैं बरसों पुराने ग्रंथ
और कुतरने लगे हैं उसके शब्द
अचानक उनमें इतनी शक्ति आ गयी
कि टूटने लगी हैं आदमकद मूर्तियाँ
वे मूर्तियाँ जिनका सिर्फ़ एक सदी से
कुछ लेना देना नहीं था
जो अपने अपने सच के साथ खड़ी थीं
चिर परिचित पुरातत्व की व्यवस्था का प्रतीक बनकर
वो ढहती मूर्तियाँ कुछ नहीं कहती है
बस टूटती आँखों से तकती रहती हैं
समाज को आइना दिखाते
सही सही है और ग़लत ग़लत
ये सारे फ़र्क़ को समझाते

वो सब के सब एक साथ कैसे ढह रहे है
वो सब के सब एक साथ कैसे टूट रहे है
चींटियों में इतनी ताक़त कहाँ से आई है
ये वहशी हिमाक़त कहाँ से पाई है

अगर ये विष इतनी तेज़ी से फैलता है
तो सदभावना क्यों नहीं पसरती
सच्चाई त्वरित क्यों नहीं होती

आदमियत मुँह छुपाए क्यों खड़ी है
दुनिया अजीबोगरीब पेशोपेश में पड़ी है
बस रोज़ खोज रहा एक झुंड मनुष्यों का
एक दूसरे झुंड को…..,,,,,

यतीश ८/३/२०१८

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