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22 Oct 2017 · 1 min read

ग़ज़ल

“माँ”
न जाने आज गांव से पनघट कहाँ गए..?
सर से उतर कर लाज के घूघट कहाँ गए..?

हर इक लिहाज शर्म को खूंटी पे टाग कर,
सच बात कहने वाले मुह फट कहाँ गए..?

सर पर उठाये फिरते थे जो घर को हर घड़ी,
घर से निकल के आज वो नटखट कहाँ गए..?

सब मिलकर बैठकर साथ खिलखिला करते थे,
वो हसने वाले ना जाने आज कहाँ गए..?

न जाने गांव में जो संयुक्त परिवार हुआ करते थे, वो ना जाने आज कहाँ गए..?

बस एक काम करने में सौ काम ले लिए,
लोगों के काम करने के झंझट कहाँ गए..?

न जाने दिल से दिल वाले जो दोस्त हुआ करते थे, वो आज कहा गए..?

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