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9 Sep 2016 · 1 min read

कुंडलिया

एक कुण्डलिया छंद. ( ढेल- मोरनी, टहूंको- मोर की बोली)

नाचत घोर मयूर वन, चाह नचाए ढेल
चाहक चातक है विवश, चंचल चित मन गेल
चंचल चित मन गेल, पराई पीर न माने
अंसुवन झरत स्नेह, ढेल रस पीना जाने
कह गौतम चितलाय, दरश आनंद जगावत
मोर पंख लहराय, टहूंको बोले नाचत॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

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