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28 May 2017 · 1 min read

दीवारें

दीवारें बहुत लंबी
उम्र लेकर आती है
इंसान से भी अधिक 
पर एक समय
के बाद उनमें पसरी
नमी,सीलन से बस
वे छुने भर से ही
भरभरा जाती हैं
जाने कब से रोका हैं
सैलाब उसने भीतर
उठा नही पाती जब
वे बोझ खुद का भी
अंदर संर्वांग तक भीगते
वे तन्हा होने लगती  हैं
सदियों तक न पाकर
अपने आस पास
आदमी की सांसे
वो दम तोड़ती रहती हैं
आज सुनी मैंने भी
उनकी घुलती सांसो 
और अंदर से दिखती
टुटी धुमिल  प्रतीकों की 
अनगिनत खामोश बातें
उनकी कोशिशें खुद
को जिंदा रखने की
चौखटों की नक्काशी में
छुपी वैभव की कहानी
कभी कभी  सुनायी देती है
दीवारों में हंसी ठहाको की
वही पुरानी सी ठसक
और एक लंबी सी कसक ।।।
नीलम नवीन  “नील”

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