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5 May 2017 · 1 min read

प्रारब्ध

मुद्दतों बाद कुछ कदम
खुद के लिए थे
खुरदरी सी सतह पर ।

कब से यूँ ही अनजाने
भटक रहे थे
किसी अनकही राह पर ।

नरम से कुछ अहसास
ज़रूर थे कभी हथेली की
गर्म सी सतह पर ।

असमय छलक गया
एक छुपा सा भाव
पनीली आँखों के कोरों पर ।

कह नही पाये अकसर
दायरों के अबोले शब्द
आते रहे जो लफ्जो के पोरों पर ।

ऐसे ही रहना है दसकों
इस जीवन से उस जीवन
बिना कहे इस अनवरत यात्रा पर ।

कभी कुछ पड़ाव
विश्राम के आयेगें अगर
ठहर जाना तब मन के भावो पर ।

राहे चाहे किसकी
किसको कभी मिलती है
कुछ बातें छोड़ दें गर प्रारब्ध पर ।

नीलम पांडेय “नील”
5/4/17

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