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28 Apr 2017 · 2 min read

' पितृ भोज'

१९८८ में मैं नई नई, दिल्ली शहर में रहने आईं थी.मन मे राजधानी की बड़ी विराट और चमकीली तस्वीर ,कहीं अन्दर एक अनजाना सा डर भी निहित था ,आखिर मै छोटे शहर में जन्मी ,पली व बढी थी न। खैर हफ्ते भर में मेरी नौकरी लग गई ,कुछ सुकून महसूस हुआ,घर में अकेले में तो ऐसा लगता था जैसे दीवारें मेरी तरफ सरक रही हैं।सुबह मुँह अँधेरे तैयार हो कर स्कूल के लिए निकली,तो पास के एक आलीशान मकान के पिछले वरांडे में नज़र पड़ी,एक कोने में पुराने टूटे फूटे अटरम शटरम का ढेर और दूसरे कोने में ऐसी चारपाई जो झोले सेे भी ज्यादा झोलदार,
रजाई पर घनी छींट के डिजाइन का राज पास से गुजरने पर खुला जब वो मक्खियों का रूप धारण कर उड़ने लगा और इस असाधारण सम्पत्ति की मालकिन एक अत्यंत कृषकाय वृद्धा , पक्के रंग के साथ चेहरा असंख्य झुर्रियों से भरा।
दो पत्थरों के चूल्हे पर कुछ पकाती उस महिला के मुख पर मुझे देखते ही स्निग्ध मुस्कान खेल गई।
हर रोज़ का नियम सा बन गया था मुस्कानों का आदान प्रदान।
एक आध बार मैंने भी खाने को कुछ पकड़ा दिया।
मेरे हिसाब से आलीशान मकान वाले आलीशान दिल के भी मालिक थे ,भई उन्होंने एक असहाय भिखारन को ठिकाना दे रखा था !रविवार की छुट्टी के बाद सोमवार को वहाँसे निकली तो कुछ खाली सा लगा,देखा वरांडे में न खाट थी न रजाई और न ही वो मुस्कान ,थोड़ा अजीब लगा पर भिखारन वो जगह छोड़ कर जा चुकी थी। दो हीी दिन में मुझे भी नार्मल लगने लगा।
चौथे दिन वरांडे के सामने वाले पार्क में लगे भव्य तंबू मे बड़ी बड़ी गाड़ियों में आये संभ्रांत स्त्री पुरुष व बच्चे दादी माँ के लिये आयोजित पितृ भोज में सम्मिलित हो रहे थे….
निज अनुभव पर आधारित लघु कथा
अपर्णा थपलियाल”रानू”
२८.०४.२०१७

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