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18 Apr 2017 · 1 min read

....फिर चले आओ पिता.........

रात फिर काली है आज
भय भगा जाओ पिता
छाती पर अपनी लिटाकर
फिर सुला जाओ पिता

देख लो मै इन अँधेरों से
अकेला लड़ रहा हूँ
आपकी दिखलाई राहों
पर निरन्तर बढ़ रहा हूँ

फिर क्युँ विचलित मन हुआ है
आओ समझाओ पिता

लाखों की है भीड़ पर
तुम बिन मैं तन्हा हूँ बहुत
थामने दो अँगुली अपनी
भटका भटका हूँ बहुत

या फिर मेरा हाथ पकड़ कर
मंजिल तक पहुँचाओ पिता

अब कहाँ से लाँऊ वो
जादू के जैसा बूढ़ा हाथ
हर चिन्ता को हरने वाला
हर दौलत से महँगा हाथ

मौत को जीवन बना दो
फिर चले आओ पिता

छाती पर अपनी लिटाकर
फिर सुला जाओ पिता

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