[[[ यूँ ही शुरू हो गया फ़िल्मी सफ़र ]]]
((((यूँ ही शुरू हो गया फिल्मी सफर))))
#दिनेश एल० “जैहिंद”
फिल्मी लाईन” एक तालाब है | मैं औरों की तरह कम उम्र में इस तालाब में कूद पड़ा था |
सोचा कि बहुत सारी फिल्मरूपी मछलियाँ पकड़ कर बेचूँगा और नाम-पैसा कमाऊँगा |
मेरे साथ कई डिप्लोमाधारी फिल्मकार, निर्देशक और दिग्गज लोग भी थे | किसी के पास छोटी नाव तो किसी के पास बड़े-बड़े जहाज भी थे और सबके हाथों में फिल्मरूपी
मछलियाँ पकड़ने के सारे सामान भी थे, लेकिन मेरे हाथ तो खाली थे, मैं खाली हाथ ही कूद पड़ा था | परन्तु जिनका भाग्य तगड़ा था,बाप-दादाओं की दौलत व सहयोग था और जो उनकी बदौलत चले थे, उन्हें तो किनारे से ही छोटी-बड़ी मछलियाँ मिलनी शुरू हो गई और
कइयों को तो थोड़ी दूर जाने के बाद ही | परन्तु मैं वैसा भाग्यशाली व बड़े बाप का बेटा कहाँ था | “सफलता भाग्य की अंतिम सीढ़ी होती है !”
यह मैंने उसी वक़्त जाना |
मैं तो डूबते-उतराते, हाथ-पाँव मारते खाली हाथ ही आगे बढ़ रहा था | मछलियाँ मिलेंगी,जरूर मिलेंगी की उम्मीद व आशा ने मुझे “मँझधार” तक लाकर छोड़ा, परन्तु एक भी मछली हाथ न लगी |
बड़े दु:ख के साथ डूबते-उतराते पीछे मुड़कर देखा तो मेरे साथ के मित्रों के हाथों में, जालों में यहाँ तक कि उनकी नावों और जहाजों में भी फिल्मरूपी मछिलयाँ पड़ी हुई थीं |
दु:ख को भूलकर झूठी हिम्मत बाँधकर आगे बढ़ना जारी रखा | आखिर करता भी क्या मैं ?
मँझधार से खाली हाथ तो वापस नहीं आ सकता था न ! पीछे लौटना तो शर्म वाली बात होती, उपहास का कारण बन जाता, सो मैंने सोचा कि फिल्म लाईन रूपी इस तालाब में
डूबूँगा नहीं, किसी तरह हाथ-पाँव मारते हुए उस किनारे तक पहुँचकर ही दम लूँगा, क्योंकि कोई भी यह समझ सकता है कि पीछे भी जाने में वही वक़्त लगेगा और आगे भी जाने में वहीं
वक़्त लगेगा | और उस वक़्त दुबारा हाथ-पाँव मारना शुरू किया | फिर भी मेरे हाथ खाली थे |
कई बार ऐसा हुआ कि मेरे हाथों मछलियाँ लगी भी, पर मैं ठीक से पकड़ नहीं पाया और वे फिसल गईं |
पकड़ में भी भला कैसे आतीं मैं तो पैदाईशी खाली हाथ आया था |
लेकिन फिर भी दुनिया के उलाहने व हँसी भरे तानों से बचने के लिए और कुछ कर दिखाने के लिए नई आशा के साथ मैं मँझधार से आगे बढ़ा कि उस तरफ उस किनारे “मछलियाँ” जरूर मिल जाएंगी |
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