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7 Nov 2016 · 1 min read

धुंध की चादर मे शहर सिसक रहा है

न जाने क्यू दिल मे कुछ हलचल हो रही थी
द्वार पे जाकर देखा तो इक पेड़ पे बनी थी

नश्तर लिए हाथो मे पत्ते कतर रहे थे
जी जान से जुटे थे इक पल न ठहर रहे थे

मुंडित किया सिरे से अब ठूंठ सा खड़ा था
पत्ते बिना वो पेड़ अब गिरने को हो चला था

आलय दिया धरा ने
पुष्पित किया पवन ने
बूंदों ने पल्लवित किया था …..
रवि के ताप से जगमग हो चला था …..
पर !!!

मारी कुल्हाड़ी ऐसी बस ढेर हो चला था
टुकड़े किए हजारो ढो के ले चला था

अजब सा मंजर था ये क्या हो रहा था
जीते जी उसने उपकार ही किया था

कुछ नही तो प्राण वायु ही दे रहा था
मर कर भी वो कुछ तो दे रहा है

घर बार को किवाड़ और बिस्तर दे रहा है
फिर भी इसॉ उसके प्राण ले रहा है

अन्जान हो खुद को मलिन कर रहा है
बढ़ते प्रदूषण मे खुद ही सिमट रहा है
स्वयं को प्रक्रति दूर कर रहा है
आपदा को स्वयं ही न्योता दे रहा है
सच….
धुंध की चादर मे शहर सिसक रहा है
धुंध की चादर मे शहर सिसक रहा है

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