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13 Oct 2016 · 1 min read

हर सुबह दीया बुझाता हूँ

हर सुबह दीया बुझाता हूँ
शाम होते फिर जलाता हूँ।1

टूटते रहते यहाँ सपने
आस मैं फिर से लगाता हूँ।2

कौन कहता है खता अपनी
क्यूँ भला खुद की बताता हूँ? 3

नाचते जो, जीत जाते हैं
मैं नचाते मुस्कुराता हूँ।4

लाज की परवा किसे अब है?
बेवजह मैं ही लजाता हूँ।5

श्वेद-कण, बन ओस की बूँदें,
जी रहा, पावक नहाता हूँ।6

उर्वरे!भागे अँधेरा भी,
इसलिये तिनके जलाता हूँ।7
@मनन

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