चप्पल और चरखा
चप्पल और चरखा बोले एक दिन,
“हमने ही रचा था इतिहास रे!
न तलवार, न तख़्त, न ताज चाहिए,
बस आत्मबल का विश्वास रे।”
चरखा घूमे तो सूत निकले,
पर चप्पल चले तो क्रांति उठे।
एक सादगी का प्रतिक बने,
दूजा सड़कों पर सत्य रटे।
चरखा कहे – “मैं गाँधी की साँस हूँ”,
चप्पल बोले – “मैं उनकी चाल हूँ।”
जो चला था नमक के तट से,
मैं उस माटी की मिसाल हूँ।
अब देखो गाँव की चौपालों में,
चरखा चुप है, चप्पल टूटी।
न कौशल रहा, न कारीगरी,
बस नेता की कुर्सी छूटी।
नरेश फिर से टांग रहा है
चप्पल को घर की दीवार पर।
और चरखा धूल से पूछ रहा –
“अब कौन है इस सरकार पर?”
चरखा बोले – “मुझे मत भूलो,
मैं तुम्हारी जड़ों की भाषा हूँ।”
चप्पल बोले – “हर संघर्ष में,
मैं गाम की पहली आशा हूँ।”
जब देश का सपना बुनोगे तुम,
तो चरखा फिर मुस्काएगा।
और जब अन्याय को रौंदोगे,
तो चप्पल भी इतिहास बनाएगा।
नेता बोले – ‘विकास करेंगे’,
नरेश बोले – ‘चरखा दो’।
‘सड़क देंगे’, ‘पानी देंगे’,
पर पहले वो टूटा चप्पल तो!
अब गाम के हाथों में फिर,
चरखा घूमे, चप्पल चले।
नरेश बोले – “अब की बार
जन की जुबां से हल चले।”
यह क्रांति है चप्पल और चरखे की,
न शोर है, न खून की धार है।
पर जहाँ ये उठते हैं सच्चाई से,
वहीं झुकता दरबार है।
नमन उस चरखे को, जो स्वदेश बुनता है।
नमन उस चप्पल को, जो अन्याय कुचलता है।
~ एन मंडल, समस्तीपुर, बिहार