वृद्धावस्था और अकेलापन
हर वृद्ध के मन में
एक धीमी-सी कविता धड़कती है—
जो न शब्द माँगती है,
न आवाज़,
बस किसी संवेदनशील दिल की उपस्थिती।
आँखों की नमी में
उनकी अधूरी कहानियाँ चमकती हैं,
और चेहरे की झुर्रियाँ
बीते समय की दास्तान बन जाती हैं।
वे बोझ नहीं—घर की धरोहर हैं,
जिनके आशीष से ही
समृद्धि चौखट पार करती है।
पर जब उम्र ढलती है,
तो सबसे भारी लगता है अकेलापन—
यह कोई निजी दुःख नहीं,
हमारी सामाजिक चेतना की सच्ची परीक्षा है।
बुज़ुर्गों को सहारा नहीं चाहिए,
सिर्फ यह एहसास चाहिए
कि वे अभी भी हमारे जीवन का
सबसे सुंदर, सबसे मूल्यवान हिस्सा हैं।
~ एन मंडल, समस्तीपुर, बिहार.