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3 Dec 2025 · 4 min read

#मानस_मंथन

#मानस_मंथन
■ “पराई आस” पर सदैव भारी “आत्म-विश्वास”
★ “परजीवी” किसलिए बनना?
★ मानस को मानसमय करिए
【प्रणय प्रभात】
मानव प्रजाति के माथे पर परजीविता का कलंक मात्र 5 साल पुरानी वैश्विक महामारी के 32 माह की देन नहीं। वस्तुतः यह एक मानवीय प्रवृत्ति है, जिसका सम्बंध दुनिया के अनेकानेक विकासशील और अविकसित देशों से है। जहां आबादी का बड़ा हिस्सा किसी न किसी रूप में औरों पर निर्भर है। शारीरिक या मानसिक तौर पर असमर्थ लोग पराश्रित हों तो समझ मे आता है। इसके विपरीत हर तरह से समर्थ होने के बाद भी आश्रित होने का समर्थन कोई नहीं कर सकता। मनुष्य को पशुवत बनाने वाली यह प्रवृत्ति मूलतः एक मानसिक विकार है, जिसका सरोकार वैयक्तिक सोच व स्वार्थ से है। इस तरह की सोच व मानसिक विकारों से उबारने वाला एक मार्गदर्शी धरती पर बीती पाँच सदियों से उपलब्ध है। जिसे दुनिया भर के सनातनी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास कृत “श्री रामचरित मानस” के नाम से जानते हैं। मानस अर्थात मन रूपी एक मंजूषा, जिसमे चिंतन व प्रेरणा रूपी अनेक रत्न भरे पड़े हैं। एक-एक पंक्ति में प्रेरणा से परिपूर्ण यह महाग्रंथ सहज सुधार के माध्यम से आत्म व लोक-कल्याण का पथ प्रशस्त कटता आ रहा है। संभवतः इसीलिए कहा गया है-
“मंत्र महामणि विषय व्याल के।
मेटत कठिन कुअंक भाल के।।”
श्री रामचरित मानस की एक-एक पंक्ति पर वृहद लेखन संभव है। संसार मे कोई समस्या ऐसी नहीं, जिसका समाधान मानस जी में उपलब्ध न हो। आवश्यकता आस्थापूर्ण स्वाध्याय सहित चिंतन और मनन की है। आज हम जिस लाचारगी व बेचारगी की समस्या पर चर्चा कर रहे हैं, उसका सरल निदान भी मानस की यह अर्द्धाली करती है-
“कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहीं होई तात तुम पाहीं।।”
अपनी शक्ति के आभास को लेकर अभिशप्त महाबलौ हनुमान को जागृत करने के भाव से जुड़ी उक्त पंक्ति क्या एक साधारण मानव को जागृत नहीं कर सकती? यदि कर सकती है तो उसे स्वयं पर थोपी गई मनमानी बाध्यता और विवशता से क्यों नहीं उबार सकती? एक मानसप्रेमी के रूप में मैंने भी कुछ अर्द्धलियों को श्रद्धा के साथ आत्मसात कर घोर अक्षमता की स्थिति में सक्षम समझने का प्रयास किया है। जो प्रभु श्रीराम जी व परम सदगुरुदेव श्री हनुमान जी महाराज की अनंत कृपा से सफल भी हुआ है। परिणामस्वरूप 85 प्रतिशत दृष्टीबाधा व 50 प्रतिशत शारीरिक अशक्तता के बाद भी बिना किसी की मदद से अपने सतत रचनाधर्म में सक्रिय हूँ और हिंदी व उर्दू की विविध विधाओं में विविध विषयों पर नियमित सृजन कर पा रहा हूँ। जो “पंगु चढ़हि गिरिवर गहन” का एक स्वानुभूत आभास और उदाहरण है। अब से 6 वर्ष पूर्व कर्क व्याधि (केंसर) की चपेट में आने के बाद मुझे मृत्यु-मुख से बाहर लाने का काम भी दिव्य श्री राम-कथा के प्रसंगों और मानस के पात्रों ने ही किया। यह लिखने का प्रायोजम न स्वयं को महिमा-मंडित करना है, ना ही आत्मप्रशंसा से आनंदित होना। उद्देश्य उस एक भयरहित पथ से परिचित कराना है, जिस पर से स्वयं अग्रसर हो पा रहा हूँ। यह मानस की प्रेरणाओं का ही प्रताप है। परिस्थितिजन्य असमर्थों से प्रभु श्रीराम व मानस जी की शरण मे आने का विनम्र आग्रह करना भर चाहता हूँ। प्राप्त परिणामों को सार्वजनिक रूप से साझा करने का भी अनुरोध करता हू। ताकि आपके अंतर्मन की प्रेरणा का एक दीप अन्य दीपों को प्रेरणा की लॉ से आलोकित कर सके। यह छोटा सा प्रयास आपको जाम्बुवान (जामवंत) की तरह गौरव और संतोष का भागी बना सकता है। साथ ही न जाने कितने अभिशप्त हनुमानों के जागरण का माध्यम बन सकता है। अभिप्राय इतना है कि रामराज्य की परिकल्पना का सूत्रपात हनुमंत जागरण के बिना संभव नहीं और प्रत्येक अंतःकरण में विराजित हनुमान जी महाराज के जागरण के उपाय मानस से बाहर नहीं हैं। आज की बात को विराम देने के लिए अपनी चार स्वरचित व मौलिक पंक्तियों को आपके समक्ष रखना चाहता हूं, जो संभवतः आपकी चेतना का स्पर्श करें। निवेदित करता हूँ कि-
“विवशता कुछ नहीं होती, मनोबल पास में हो तो।
सबक़ मानस ये तुलसीदास का हम को सिखाता है।।
जहाँ संशय किसी अंगद का साहस छीन लेता है।
वहीं से शौर्य का हनुमान सागर लाँघ जाता है।।”
अवगत कराना प्रासंगिक होगा कि उक्त पंक्तियाँ जीवन-मृत्यु की रस्साकशी के बीच रुग्ण-शैया पर पड़े हुए तब लिखी थीं, जब आगामी दिवस तो दूर अगले कालखंड तक जीवित रहने का भी भरोसा नहीं था। स्मरण रखिएगा कि अन्यान्य पर आस से लाख गुना श्रेष्ठ “आत्मविश्वास” है। जो आपको संशयों की गहरी खाई से दूर ले जाकर साहस की ऊंची चट्टान पर स्वाभिमान व सामर्थ्य के साथ खड़ा करने की क्षमता रखता है। एक बार मानस को मानसमय बना कर देखिए बस। जय राम जी की।।

संपादक
न्यूज़&व्यूज
श्योपुर (मप्र)

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