रजतपट की परियां
रजतपट की परियां
वे परियाँ
रंगों की दैदीप्यमान गुफाओं में रहती हैं,
जहाँ रोशनी की धाराएँ
चमकती त्वचा पर ऐसे फिसलती हैं
मानो सत्य का उजाला वहीं जन्म लेता हो।
पर वह उजाला
दरअसल अँधेरों का ही कोई और रूप होता है,
परिष्कृत… चकाचौंध भरा…
जिसे देखकर नौजवान
अपने भीतर की दरारें भूल जाते हैं।
वे परियाँ
रजतपट पर मुस्कुराती हुई,
हर मुस्कान के पीछे
कितनी परतें होती हैं यह कोई नहीं जानता।
नौजवान
उन मुस्कानों को सत्य मान लेते हैं
और अपने साधारण,
पर साफ-सुथरे जीवन से
किसी अजनबी रोशनी की तरफ भागते हैं।
चमक का यह सम्मोहन
धीरे-धीरे आत्मा की नदी में
भँवर की तरह घूमता है
पहले मन को पकड़ता है,
फिर इच्छाओं को,
और अंत में विवेक को।
जो सत्य को नहीं पहचान पाते
उनकी आँखों में
आकर्षण नहीं,
एक प्रकार की भ्रम-लत जम जाती है।
वे परियाँ
जिनके पीछे सपनों के जंगल उगते हैं,
वे स्वयं भी
एक अदृश्य कैमरामैन की गिरफ्त में होती हैं।
उनकी हवा भी
निर्मित होती है,
उनकी मुस्कान भी
किसी प्रोडक्शन मीटिंग का हिस्सा होती है,
उनकी चाल भी
मुनाफ़े और बाज़ार का समीकरण होती है।
पर नौजवान
जो सच्चाई की इस लेखा-जोखा को नहीं समझते,
वे अपने भीतर की घाटियाँ खो देते हैं।
उनकी आत्मा
दूसरों की चमड़ी पर चिपकी रोशनी से
अंधी हो जाती है।
वह नहीं देख पाती
कि वास्तविक जीवन
मिट्टी, मेहनत और मनुष्यता का
धीमा, पर गहरा संगीत है
जो सिनेमा की किसी भी
झूठी बिजली से अधिक उजला है।
हाँ
सिनेमा की परियाँ
सुंदर हैं,
पर उनका सौंदर्य
जीवन का नक्शा नहीं,
सिर्फ एक क्षणिक पोस्टर है।
जो इस अंतर को नहीं पहचानते
वे अपने ही सपनों की राख में
रास्ता ढूँढते रहते हैं।
इसलिए
हे नौजवान मन!
चमक को देखो
पर उसकी सीमा पहचानो।
सुंदरता का आनंद लो
पर उसकी पीठ पर बैठी बाज़ार की साँसों को भी समझो।
क्योंकि जीवन
सत्य की जलधारा है
चमक उसकी सतह चमकाती है,
पर गहराई
उससे कोसों दूर,
हमारे अपने अनुभवों और संघर्षों से जन्म लेती है।
इसी गहराई को पहचानो
तभी तुम परियों की दुनिया में जाकर भी
अपने भीतर के मनुष्य को
भ्रम के पतन से बचा पाओगे।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’