ज़मीर थक सा गया है
कविता शीर्षक- ज़मीर थक सा गया है
चिराग़ क्यों हैं अँधेरे से इस कदर डरते हुए,
मैं सोचता हूँ कौन है जो हममें घर करते हुए।
ज़मीर थक सा गया है अब फैसलों के बोझ से,
हमारे भीतर कौन है ये हमीं पर हँसते हुए।
न इंसाफ पसंद हैं, न सच की कोई आरज़ू,
वही तो बैठे हैं यहाँ तक़दीर को परखते हुए।
हर एक चेहरे पे नक़ाब हैं दहशतों की तरह,
हम अपने ही साए से क्यों रोज़ हैं डरते हुए।
ये ज़िंदगी तर्ज़े-बयाँ बदलती रहती है, मगर
हमारे ज़ख्म हैं अब भी उसी जगह रिसते हुए।
उम्मीद की शाखें हैं सूखी, पत्ते नहीं उगते पर
ख्वाब कुछ ऐसे भी हैं जो टूट कर हँसते हुए।
चलो कि आज भी सच का रास्ता तंग सही,
हमारा फ़र्ज़ है चलना—जगह-जगह गिरते हुए।
ये वक़्त भी एक समुंदर का खारापन ही सही,
हम ही तो वो नमक हैं इसमें लज़्ज़त भरते हुए।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’