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1 Dec 2025 · 1 min read

ज़मीर थक सा गया है

कविता शीर्षक- ज़मीर थक सा गया है

चिराग़ क्यों हैं अँधेरे से इस कदर डरते हुए,
मैं सोचता हूँ कौन है जो हममें घर करते हुए।

​ज़मीर थक सा गया है अब फैसलों के बोझ से,
हमारे भीतर कौन है ये हमीं पर हँसते हुए।

​न इंसाफ पसंद हैं, न सच की कोई आरज़ू,
वही तो बैठे हैं यहाँ तक़दीर को परखते हुए।

​हर एक चेहरे पे नक़ाब हैं दहशतों की तरह,
हम अपने ही साए से क्यों रोज़ हैं डरते हुए।

​ये ज़िंदगी तर्ज़े-बयाँ बदलती रहती है, मगर
हमारे ज़ख्म हैं अब भी उसी जगह रिसते हुए।

​उम्मीद की शाखें हैं सूखी, पत्ते नहीं उगते पर
ख्वाब कुछ ऐसे भी हैं जो टूट कर हँसते हुए।

​चलो कि आज भी सच का रास्ता तंग सही,
हमारा फ़र्ज़ है चलना—जगह-जगह गिरते हुए।

​ये वक़्त भी एक समुंदर का खारापन ही सही,
हम ही तो वो नमक हैं इसमें लज़्ज़त भरते हुए।

-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’

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