वह अकेली औरत
वह अकेली औरत
वह सड़क के बीचों-बीच चलती है,
निर्वस्त्र… नि:संकोच… निरपेक्ष।
जैसे उसने त्याग दिया हो
वह अंतिम आवरण भी,
जो उसे इस सभ्य
दुनिया से जोड़े रखता था।
उसके बाल,
हवा में ऐसे बिखरे हैं जैसे
किसी वीरान जंगल की
उलझी हुई झाड़ियाँ,
जिनमें अब कोई पक्षी
अपना घोंसला नहीं बनाता।
उसकी देह पुष्ट है,
मांसल और गठी हुई,
जैसे प्रकृति ने
उसे पत्थर और मिटटी से गढ़ा हो,
मगर वह देह अब सिर्फ़ एक तमाशा है।
हज़ारों जोड़ी आँखें,
दिन भर उसका पीछा करती हैं।
ये आँखें उसे देखती नहीं हैं,
ये आँखें उसे पीती हैं।
हर नज़र उसकी नग्नता को
ऐसे टटोलती है,
जैसे कोई भूखा भेड़िया
मांस के लोथड़े को घूरता हो।
विचित्र है न?
हज़ारों हाथ हैं इस भीड़ में,
हज़ारों मीटर कपड़ा लिपटा है
लोगों के शरीरों पर,
मगर एक भी हाथ नहीं बढ़ता,
जो अपनी चादर उतारकर,
उस नग्न देह को ढक दे।
कोई नहीं बढ़ता
उसकी अस्मिता को ओट देने,
सब बढ़ते हैं सिर्फ़
अपनी कामुक कामना की प्यास बुझाने।
उसकी आँखें…
आह! वो भभसी हुई आँखें,
लाल, सूजी हुई, गहरें गड्ढों में धंसी हुईं।
उन आँखों ने महीनों से
नींद का स्वाद नहीं चखा,
उनमें सिर्फ़ एक अंतहीन जागना है,
एक ऐसा पागलपन
जो नींद से भी ज़्यादा गहरा है।
वह कुछ नहीं बोलती,
मगर उसका यह नंगापन चीखता है।
उसका हर कदम,
तुम्हारे सजे-संवरे समाज के गाल पर
एक करारा तमाचा है।
वह पागल है, शायद…
लेकिन उसे नग्न देखकर,
जो हवस तुम्हारी आँखों में तैर जाती है,
सच्चाई तो यह है…
कि कपड़े तुमने पहने हैं,
मगर नंगे तुम हो गए हो।