#जीवन_दर्शन
#जीवन_दर्शन
■ दिन-रात या घोड़े…?
【प्रणय प्रभात】
“दिन के घोड़े,
रात के घोड़े।
इतना दौड़े,
इतना दौड़े।।
जीवन रूपी,
पगडंडी पर।
घास न छोड़ी,
इक मुट्ठी भर।।
तीव्र वेग से,
तन-मन दहला।
जब भी काँपा,
सहज न बहला।।
बल के छल से,
किया किनारे।
पहले तन फिर,
मन से हारे।।
धूल-धूसरित,
देह बना दी।
अंतर्मन में,
रार ठना दी।।
टाप तले सब,
कुचले सपने।
कुछ अपने थे,
रहे न अपने।।
पीछा तनिक,
न छोड़ रहे हैं।
घोड़े अब भी,
दौड़ रहे हैं।।”
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
(मध्यप्रदेश)