लेख: 'प्रैंक वीडियो: मनोरंजन के नाम पर फैलती बुराई'
प्रैंक वीडियो: मनोरंजन के नाम पर फैलती बुराई
✍️ — सुनील बनारसी
आज के समय में सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को अपनी बात कहने और दिखाने की आज़ादी दी है। यह आज़ादी अच्छी बात है, लेकिन जब कोई इस आज़ादी का इस्तेमाल दूसरों को डराने, अपमानित करने या परेशान करने के लिए करता है, तब यह समाज के लिए खतरनाक बन जाती है। आजकल गांवों में कुछ लोग “प्रैंक वीडियो” के नाम पर दूसरों के साथ ऐसी हरकतें कर रहे हैं, जो बिल्कुल असंवेदनशील हैं। कोई किसी बच्चे को उठा लेता है, कोई बुजुर्ग को परेशान करता है, कोई महिला से मज़ाक के नाम पर बदतमीज़ी करता है और फिर सब कुछ कैमरे में कैद कर इंटरनेट पर डाल देता है।
जिस व्यक्ति के साथ यह मज़ाक किया जाता है, उसके लिए यह कोई खेल नहीं होता। वह घबरा जाता है, डर जाता है, उसे लगता है कि यह सब सचमुच हो रहा है। कभी-कभी यह डर इतना बढ़ जाता है कि व्यक्ति बेहोश हो जाता है या उसे दिल का दौरा पड़ सकता है। तो सवाल यह उठता है कि अगर किसी की जान चली जाए, अगर किसी बच्चे को चोट लग जाए, अगर किसी बुजुर्ग को हृदयाघात हो जाए, तो क्या इन वीडियो बनाने वालों से कोई भरपाई होगी? क्या वे उस परिवार का खोया हुआ सदस्य लौटा पाएंगे?
कुछ लोग यह सब केवल इसलिए करते हैं कि उनके वीडियो वायरल हों, उनके फॉलोअर बढ़ें, लोग उन्हें पहचानें। पर क्या किसी की भावनाओं से खिलवाड़ करके प्रसिद्धि पाना सही है? क्या हंसी उसी की होनी चाहिए जिसके लिए कोई और रोए? यह कैसी सोच है जो किसी की पीड़ा को मनोरंजन बना देती है? गांवों के लोग सरल और सच्चे होते हैं। वे जो देखते हैं, उसे सच मानते हैं, लेकिन आजकल कुछ लोग इस सरलता का मज़ाक बना रहे हैं। वे सोचते हैं कि गांव वाले मूर्ख हैं, इन्हें डरा दो, चौंका दो और वीडियो बना लो। पर यह भूल जाते हैं कि यह मनोरंजन नहीं, बल्कि अपमान है।
अब सवाल यह भी है कि क्या इस तरह की हरकतों पर कोई रोक लगेगी? क्या इन वीडियो बनाने वालों से यह पूछा जाएगा कि अगर किसी की जान चली गई तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या कोई कानून या नियम यह तय करेगा कि मज़ाक की भी एक सीमा होती है? और क्या समाज खुद यह ठान लेगा कि ऐसे वीडियो न देखे, न लाइक करे, न शेयर करे?
मनोरंजन तब तक ठीक है जब तक वह किसी की गरिमा और सुरक्षा को ठेस न पहुंचाए। लेकिन जब “प्रैंक” किसी की जान, सम्मान या भावनाओं से खेलने लगे, तब वह मज़ाक नहीं — अपराध और अमानवीयता बन जाता है। अब वक्त आ गया है कि हम सब मिलकर इस प्रवृत्ति को नकारें। जो वीडियो किसी की पीड़ा पर आधारित हों, उन्हें डिसलाइक करें, अनदेखा करें और ऐसा स्पष्ट संदेश दें कि हमें हंसी चाहिए, पर इंसानियत के मूल्य खोकर नहीं।
सुनील बनारसी