सर्द हवाओं के बर्बर थपेड़े और स्वयं की दुशाला का ठुकराना,
सर्द हवाओं के बर्बर थपेड़े और स्वयं की दुशाला का ठुकराना,
हतप्रभ खड़े अस्तित्व का, निःशब्दिता के सागर से टकराना।
यूँ तो पतझड़ कब से ठहरी थी, शाखों की यादें गहरी थी,
धुंध की वो परत नयी सी, जिसके स्पर्श में छुपा भ्रम पुराना।
ग्रीष्म का सूरज अपना था, जो छोड़ गया बिन कहे ठिकाना,
मेरे हिस्से की धुप भी ले गया, अब बाध्यता है जड़ता को पाना।
सहमे से संकुचित से दिन ये, और रात्रि का विशालता से डराना,
इस अन्धकार से प्रेम किया जब, स्वयं को मैंने पूरा पहचाना।
दीप आशाओं के सारे बुझ गए, और शहर बना एक भुला तराना,
मुझे पीड़ा के जंगल ने पथ दिया, और कहा तुझे है चल कर दिखाना।
अब परिवर्तित ऋतुओं का भान नहीं, मुझे संवेदनाओं का संज्ञान नहीं,
वैराग्य ने रचा रणक्षेत्र ये, जहां नियम था रक्तरंजित अधरों से मुस्काना।