वो जो लगते जिगर थे मेरे, उनको कद मेरा भाता नहीं,
वो जो लगते जिगर थे मेरे, कद मेरा उनको भाता नहीं,
बादशाहत का ये दौर है, झुकना अब मुझको आता नहीं।
बदगुमानी में यूं खो गए, खुद को हमसे जुदा कर लिया,
मैं उसे अपना कैसे कहे, अपना जो मुझको कहता नहीं।
बेखुदी का ये आलम हुआ, यादें सारी यूं ही जल गई,
जाने वाला चला जाएगा, रोकना मुझको आता नहीं।
कल नजर उन पे भी पड़ गई, कचरे में थे जो तोहफ़े मिरे,
हां ये सच है कि कुछ भी मेरा, अब तलक उसको भाता नहीं।
प्यार का ये सफर है गजब, मंजिलें इसमें मिलती नहीं,
हां “अभीमुख” ये सच है कि अब, इस गली भी वो आता नहीं।
अभिषेक सोनी “अभिमुख”
ललितपुर, उत्तर–प्रदेश
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