#जीवन_दर्शन :-
#जीवन_दर्शन :-
■ जाना पड़ता है आने को।…!!
【प्रणय प्रभात】
निज अश्वों की टापें
गिन कर,
मैं अस्ताचल-गामी दिनकर।
जाता हूँ थकन मिटाने को,
जाना पड़ता है आने को।।
● मन करता है अनुरोध करूं,
अभिलाषा है सुनवाई हो।
जैसे आने पर अगवानी,
वैसी ही भव्य विदाई हो।
मंतव्य यही समझाने का,
प्रस्थान पूर्व समझाना है।
जाने का हो क्यों कर विषाद?
नव तेजवान हो आना है।
कहने को शेष-अशेष बहुत,
बस समय नहीं बतलाने को।
मैं अस्ताचल-गामी दिनकर,
जाता हूँ थकन मिटाने को।।
● कुछ ने बस अग्नि-पिंड माना,
कुछ ने पौरुष स्वीकार किया।
कुछ ने मेरा जलना देखा,
कुछ ने श्रद्धा से अर्घ्य दिया।
जिसने भी मन से दिया मान,
अंतर्मन से है अभिनंदन।
मैं चिर-कृतज्ञ करबद्ध खड़ा,
आभार सभी का ले वंदन।
जो आज रहा उपलब्ध दिया,
अब पास नहीं दे पाने को।
मैं अस्ताचल-गामी दिनकर,
जाता हूँ थकन मिटाने को।।
● अस्तित्व सार्थक है तब ही,
संतोष रहे कुछ देने का।
जब यहीं छोड़ कर जाना है,
औचित्य भला क्या लेने का?
मैं धन्य हुआ कृतकृत्य हुआ,
जो जगती को कुछ दे पाया।
जो छूटा वो सब धूल सदृश,
वो शिरोधार्य जो कुछ पाया।
ना अंत:स में कुछ संचय को,
ना मानस में बिसराने को।
मैं अस्ताचल-गामी दिनकर,
जाता हूँ थकन मिटाने को।।
जाना पड़ता है आने को।।
#आत्मकथ्य
अस्ताचल-गामी सूर्यदेव को अर्घ्य देने का महापर्व “छठ” और इंसानी जीवन की साँझ की अनुभूति के बीच का साम्य उद्घोषित करती एक आध्यात्मिक गीत-रचना। उनके लिए जिन्हें जीकन दर्शन व ईश्वरीय विधान में तनिक सी भी श्रद्धा व अभिरुचि है। गीत का एक प्रयास घोर निराशा के बीच निढाल तन और मन के लिए आशा की एक किरण की उत्साहपूर्ण खोज भी है। शायद आभास कर सकें आप भी। विशेष रूप से वे सब, जो अस्तांचल की ओर उन्मुख भगवान भास्कर की अर्चना का महापर्व मनाने जा रहे हैं। जन्म और मरण इंसान की गति है तो उदित और अस्त होना सूरज की नियति। इन दोनों के बीच कुछ भी असमान नहीं। सूर्य और जीवन की यात्रा की आत्मिक अनुभूतियों पर केंद्रित आध्यात्मिक गीत रचना सुविज्ञ मित्रों को सादर समर्पित।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
8959493240