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15 Oct 2025 · 1 min read

अवगाहन

मैं उतरा,
बिना किसी निमंत्रण के
उस जल में
जो बाहर नहीं बहता,
भीतर उतरता है।

पहली लहर ने पूछा
“क्या तुम सचमुच उतरना चाहते हो,
या केवल देखने आये हो
कि गहराई कितनी है?”

मैंने उत्तर नहीं दिया,
क्योंकि उत्तर देना
किनारे का शिष्टाचार होता है।

जल ने मुझे छुआ,
जैसे स्मृति छूती है
धीरे, अनदेखी, पर तीव्र।
हर स्पर्श में
कोई अधूरी बात थी,
कोई नाम,
जो कभी मेरा था,
अब नहीं।

अंधकार में मैंने देखा
प्रकाश का बीज,
जो बाहर नहीं, भीतर उगता है।
वह बीज मौन था,
पर उसकी नब्ज़ चल रही थी
ब्रह्म की धड़कन की तरह।

मैंने देखा,
मेरी छाया अब मुझसे अलग थी,
वह ऊपर तैर रही थी,
और मैं
अंत:जल में डूबता चला गया,
जहाँ “मैं” का कोई स्वर नहीं,
सिर्फ़ अस्तित्व की गूंज थी।

वहाँ समय भी नहीं था,
केवल अनुभव था
जो शब्दों के पार,
अर्थ से पहले होता है।

मैंने जाना
अवगाहन,
स्नान नहीं, समर्पण है।
यह लौटने का नहीं,
भूल जाने का साहस है।

जब मैं बाहर आया,
मेरे वस्त्र नहीं भीगे थे,
पर भीतर एक अनकहा सागर था
जिसकी लहरें अब भी
मुझमें गूंज रही हैं।

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