एक किन्नर से साक्षात्कार
एक किन्नर से साक्षात्कार
उसे मैंने टटोला,
अजीब से चौराहे पर
जहाँ शरीर का भूगोल
और आत्मा का आकाश
आपस में टकराते थे।
मैंने पूछा
“तुम हो कौन? नर? मादा?
या कोई अधूरा सृजन?”
वह हँसी, एक तीखी, कटी हुई हँसी,
जो मेरे सवालों से अधिक
समाज की क्रूरता पर थी।
“मैं वह हूँ,” उसने कहा,
“जिसे जन्म ने स्वीकार किया,
पर जन ने नकार दिया।”
देह थी— मेरी, मेरी अपनी।
पर तुमने उसे बना दिया
एक सार्वजनिक तमाशा
जहाँ हर आँख देखती है घृणा से,
या फिर कामुक कौतूहल से।
कौन सा अपराध किया?
उसने पूछा, मेरी आँखों में झाँककर।
जन्म लेना? अपनी सच्चाई में जीना?
ईश्वर की एक अनूठी भूल बनना?
इस ‘भूल’ पर तुमने मुझे
हर रोज़ दी गालियाँ
हर ताली, हर ठहाका
एक पत्थर था जो फेंका गया।
तुमने कहा, “अपशकुन!”
पर तुम्हारा समाज,
जहाँ हर कोने में झूठ पलते हैं,
क्या वह शुभ है?
तुमने कहा, “अमानवीय!”
पर तुम्हारा नज़रिया,
जो संवेदना के लिए भी जगह नहीं छोड़ता,
क्या वह मानवीय है?
मैं नाचती हूँ, मांगती हूँ,
सिर्फ इसलिए कि
तुमने मेरे लिए
कोई ‘कार्यालय’, कोई ‘घर’, कोई ‘स्कूल’
नहीं बनाया
मेरी चेतना को कैद कर दिया
एक देह की परिभाषा में।
क्या मेरी छाती में दिल नहीं धड़कता?
क्या मैं रोती नहीं, क्या मैं सपने नहीं बुनती?
जब तुमने मुझे ‘वह’ कहकर पुकारा,
तो मेरा नाम, मेरी पहचान
एक पल में मिटा दी।
विराट मानवतावाद?
वह कहाँ है?
सिर्फ किताबों में? उपदेशों में?
अगर वह विराट होता,
तो मेरे भीतर की पीड़ा
तुम्हारे भी हृदय को छूती।
मानवता का अर्थ है
समस्त रूपों को स्वीकारना
उस रोशनी को भी, जो अनूठी है,
उस रंग को भी, जो मिला हुआ है।
उसने मेरी ओर देखा,
आँखों में एक अथाह शून्य।
“मैं अब भी इंतज़ार में हूँ,”
उसने फुसफुसाया,
“उस दिन का, जब मेरी हँसी
सिर्फ मेरी अपनी होगी,
और मेरी देह
सिर्फ मेरी ज़िंदगी का एक हिस्सा
न कि तुम्हारे इंसाफ का मैदान।”
साक्षात्कार ख़त्म हुआ।
और मैं चला आया,
अपने भीतर एक ‘आँसू’ लेकर,
जो न नर का था, न मादा का
सिर्फ एक इंसान का।
और यह अहसास लेकर,
कि अस्वीकृति का सबसे बड़ा अपराध
मैंने और तुमने,
हम सबने मिलकर किया है।
©अमन कुमार होली