मेरा गाँव अब शहर बन गया
पंद्रह बरस बाद लौटा
उसी धूल भरे रास्ते पर,
जहाँ पैरों में उलझती थी
अंजान खुशबू— मिट्टी की।
अब वह रास्ता नहीं है
चकाचौंध का कालीन बिछा है
डामर का, चिकना, जिस पर
भागती हैं गाड़ियाँ बेरोकटोक
हवा को चीरती हुई।
याद है मुझे, पीपल की छाँव में
बैठते थे बुजुर्ग, पंचायत होती थी।
अब वह पीपल भी कहीं खो गया
एक विज्ञापन के विशाल बोर्ड तले,
जहाँ मुस्कुराती है कोई अनजान मॉडल
‘सबसे तेज़’ इंटरनेट की गारंटी देती हुई।
वो खेत नहीं रहे, जहाँ
धान की बालियाँ सुनहरी होकर झूमती थीं
उन पर उग आए हैं कंक्रीट के जंगल,
चमकीले मॉल्स,
जिनके शीशों में गाँव की परछाईं भी
पहचानने से इनकार करती है।
चेतना! हाँ, गाँव की चेतना…
वो सादगी, वो सामूहिक हँसी,
वो एक-दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होना
सब ‘अपडेट’ हो गया है।
हर चेहरा अब एक ‘स्क्रीन’ में झुका है,
हर रिश्ता एक ‘नेटवर्क’ पर निर्भर।
अकेलेपन का ‘टॉवर’ बहुत ऊँचा खड़ा है।
बाज़ारवाद की सुनामी आई,
और बहा ले गई बरसों की देहरी।
दाल-रोटी की जगह अब
‘ब्रांडेड’ ख्वाहिशें पलती हैं,
ग्लोबलाइज़ेशन की हवा ऐसी चली
कि मेरी दादी की लोक-कथाएँ भी
‘आउटडेटेड’ लगने लगीं।
टेक्नोलॉजी ने भूगोल ही नहीं बदला,
वह पुराना ‘हम’ भी मिटा दिया।
अब हर कोई ‘सिंगल यूनिट’ है
‘सेल्फ़’ में सिमटा हुआ,
‘सफलता’ की परिभाषा बदल गई है।
रात को अब जुगनू नहीं दिखते,
बिजली की तेज़ रोशनी में
सब कुछ नंगा और उजाला है।
मैं वापस आया था
गाँव की तलाश में,
पर मिला मुझे एक अजनबी ‘सेमी-सिटी’
जिसके दिल में मेरा बचपन
एक ‘डिलीटेड फाइल’ की तरह पड़ा है,
जहाँ जाने का ‘एक्सेस’
अब मेरे पास भी नहीं रहा।
© अमन कुमार होली