महुए का बीज
महुआ
तुम सिर्फ़ एक फूल नहीं,
सभ्यता की थकी साँस हो,
जो जंगलों के मौन में
अब भी जीवन का
अर्थ तलाशती है।
तुम्हारे झरने में छिपा है
उस इतिहास का पसीना,
जो खेतों से बहकर
शहरों की
कंक्रीट दीवारों में सूख गया।
कभी तुम्हें कहा गया
नशे का वृक्ष,
पर असल में तुम वह चेतना थे
जिसने भूख को नींद में सुलाया,
और सपनों को जगा दिया।
तुम्हारी गंध में
आज़ादी का अधूरा स्वाद है
वह स्वाद जो संविधान ने लिखा,
पर पेट ने कभी पढ़ा नहीं।
समय बदला
मोहभंग की धूल में
जब आदर्श चुपचाप गुम हुए,
तब तुम गिरते रहे
हर बार, एक घोषणा की तरह।
अब, यह उत्तर समकालीन सुबह है।
जहाँ गिरना, हार नहीं
बीज बनने की तैयारी है।
तुम्हारे भीतर
छिपा वह छोटा, कठोर बीज
अब जंगल की विवशता नहीं,
बल्कि भविष्य की ज़मीन का
पहला शाश्वत वाक्य है।
उस बीज में नशा नहीं,
संघर्ष की ठंडी आग है।
वह आग जो बिना जलाए
अंधेरे को मिटाती है।
देखो
कॉर्पोरेट कार्यालय से लेकर
गाँव की चौपाल तक,
यह बीज चुपचाप फैल रहा है।
उसकी जड़ें किसी विचारधारा में नहीं,
बल्कि मिट्टी की सच्चाई में हैं।
वह कहता है
मैं बिकने नहीं आया,
मैं टिकने आया हूँ।
वह अपने भीतर लिए है
हज़ारों किसानों की अस्थियाँ,
लाखों मजदूरों के पसीने की गंध,
और एक पूरी सभ्यता की साँसें
जो अभी पूरी तरह टूटी नहीं हैं।
महुआ
अब सिर्फ़ पेड़ नहीं
वह प्रश्न है,
जो विकास के हर नक़्शे से
बाहर गिरा दिया गया।
वह प्रतिरोध है,
जो हँसते हुए अपने गिरने को
उगने में बदल देता है।
यह बीज
अब जनता का घोषणापत्र है
जिस पर लिखा है
हम जड़ हैं परंतु
हमें काटा नहीं जा सकता।
और देखो,
जंगल के उस छोर पर
जहाँ चुप्पी भी थककर गिरती है,
वहाँ से उठ रही है
नई हरियाली की गंध
महुए के बीज की गंध।
यह गंध,
अब सिर्फ़ मादक नहीं,
यह मुक्ति की गंध है।
यहीं से शुरू होती है
एक नई कविता
जो धरती की
गवाही बन जाएगी।
©अमन कुमार होली