Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
14 Oct 2025 · 2 min read

लो यह है बनारस

लो, यह है बनारस।
तुम्हारी पुरानी किताबों का
पावन शहर नहीं।
यह वह धधकती देह है
जिस पर इतिहास की राख जमी है।
गंगा! गंगा नहीं
एक मैली, भारी नदी,
जो तुम्हारे ही पापों को
अनंत काल से धो रही है।
लाशों की लकड़ियाँ
और फूल-पत्तियों का ढेर
समान भाव से तैरता है।
‘मोक्ष’ यहाँ
एक सरकारी ठेके जैसा है,
गरीब की पहुँच से दूर।

घाट?
सिर्फ़ पत्थर की सीढ़ियाँ नहीं,
ये सामाजिक विसंगतियों के
खंडित सोपान हैं।
एक सीढ़ी पर साधु,
जिसके चेहरे पर
चरस का धुँआ और
अध्यात्म का पाखंड।
ठीक उसके नीचे
नाव खींचता नाविक,
जिसके हाथों की रेखाओं में
भूख का इतिहास खुदा है।
और विदेशी पर्यटक!
वे कैमरे की आँख से
हमारी गरीबी को
एक आकर्षक ‘कलाकृति’
मानकर ले जाते हैं।
तुम्हारा ‘पुण्य’
इनके लिए ‘पिकनिक’ है।

गलियों का जाल!
एक अंतहीन भूलभुलैया,
जहाँ हर मोड़ पर
तुम्हें तुम्हारा ही खोया हुआ
आत्मविश्वास मिलेगा,
या फिर ठगी का एक नया सौदा।
बनारसी पान नहीं
जीभ पर लगा कत्थे का दाग है,
जो ‘रस’ नहीं,
पीढ़ी दर पीढ़ी का
कर्ज़ और निराशा देता है।
घंटियाँ?
शोर मचाती हैं
पर किस प्रार्थना के लिए?
उस देवी के लिए,
जो खुद गलियों में
कपड़े सुखा रही है
और अगली सुबह की
रोटी के लिए चिंतित है?

यहाँ ज्ञान और वैराग्य
आमने-सामने की
दुकान में बिकते हैं।
एक तरफ़ वेदपाठ,
दूसरी तरफ़ ताड़ी की भट्टी।
युवा!
वे यूनिवर्सिटी की सीढ़ियों पर बैठे हैं
क्रांति के नारे नहीं,
बेरोज़गारी का सन्नाटा
उनके होठों पर जमा है।
उन्होंने जान लिया है
बनारस ‘शिव’ का शहर नहीं,
यह ‘शव’ और ‘व्यवस्था’ की
अंतिम यात्रा का पड़ाव है।

हाँ, लो यह है बनारस।
मोहभंग के बाद का सत्य।
कोई गौरव नहीं,
कोई दिव्य दृष्टि नहीं।
सिर्फ़ एक टूटा हुआ शहर,
जो हर पल मरता है
और हर सुबह
फिर से ज़िंदा होने
का नाटक करता है।
क्योंकि यहाँ
‘सत्य’ कहने से
कोई मोक्ष नहीं मिलता,
सिर्फ़ पुलिस की लाठी मिलती है।
इसलिए, मैं देखता हूँ
और चीख़ता नहीं हूँ
बस लिखता हूँ,
इस पत्थर, इस धूल,
और इस विवशता का
अंतिम बयान।

‘मणिकर्णिका’ वह होटल है
बस, तुम्हारे अंतिम विश्राम का
कर्मकांड और श्राद्ध
जहां के रस्म की नकाब ओढ़े है
असल में वह टिप है
उस वेटर का
जो तुम्हारे मांस के मृत
लोथड़े को धी की
चिकनाई और
अग्नि की गरमाहट से
सेंकता है।
महादेव आज भी
पी रहें हैं
हलाहल तुम्हारे हीं
द्वार से उसी अंजुलि से
जिस की कला ने
बसाया यह अद्भुत
प्राचीन शहर काशी
और टिका दिया
अपने त्रिशूल पर।

लेकिन यही सत्य है पंडित!
तुम्हें पचाना होगा
घूंट पीना होगा
सच्चाई का जो है तो कड़वी
हां यही सत्य है
तुम्हारे पुराने जीवंत
जागते शहर का।

यह सत्य रोमांटिक नहीं
ना ही पुरस्कार देने योग्य
मुझे पता है यह
इसे पढ़कर तुम्हारी धमनियां
उबल पड़ी होगी
मेरे प्रति खींझ पनपती होगी
क्रोध का गुबार उठता होगा।
आखिर क्या मजाक है ?
भोंसड़ी के !
यह गाली नहीं
जानता हूं,
यह है बनारस की
सभ्यता का ऑस्कर।

© अमन कुमार होली

Loading...