Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
13 Oct 2025 · 2 min read

अब वह लमही कहाँ?

लमही!
तुम्हारा नाम अब एक पता है,
बस एक डाकघर का पिनकोड।
वह गली
जहाँ गोबर और धनिया की साँसें
धूल में लिपटी थीं,
आज वहाँ है कंक्रीट का जंगल।
और प्रेमचंद,
एक काँसे की मूर्ति हैं
चौराहे पर,
गले में सूखी माला,
तटस्थ,
जैसे अब कुछ बचा ही न हो
कहने को।
वह कलम
जो किसान की कराह
और होरी के फटे पाँवों की स्याही थी,
आज संग्रहालय की
काँच-पेटी में बंद है,
निर्जीव।
वह संवेदना कहाँ?
जो “कफ़न” में
घीसू और माधव के पेट की आग थी,
जो “पूस की रात” में
हलकू के शरीर की सिहरन थी
क्या आज भी वह आग, वह सिहरन,
तुम्हारे
रंगमंच पर
उतनी ही असली है,
या बस
एक दोहराया गया संवाद?
तुम्हारे आँगन की
बरगद की छाँव
सिर्फ़ इतिहास के पन्नों में ठहरी है।
किसान अब
खेतों में नहीं,
महानगरों की
श्रम-मंडियों में
सस्ता माल है।
हाँ, लमही,
साल में एक दिन
तुम्हारी जयंती मनती है।
भाषण होते हैं।
वाद-विवाद होते हैं।
फिर
सत्ता
और साहित्य के बीच
एक लंबी-गहरी चुप्पी उतर आती है।
और मैं सोचता हूँ
प्रेमचंद का वह लमही
जहाँ शब्द
जीते थे,
साँस लेते थे,
संघर्ष करते थे
अब वह लमही कहाँ?
वह तो सिर्फ़ याद है,
एक टूटा हुआ बिम्ब,
आज के
चकाचौंध बाज़ार में,
जिसे हमने
मूर्तियाँ बनाकर
आधुनिकता की
किसी अँधेरी दराज में
बंद कर दिया है।
मगर,
उनकी कहानी का
अधूरापन,
आज भी
हर कोने में चीख रहा है।
हर गरीब की झोंपड़ी,
हर भूख से सिकुड़ी आँख
वही लमही है।
शायद, हम ही
उसे
पहचानना भूल गए हैं।
या फिर,
हमने तय कर लिया है
कि सच
अब कविता नहीं हो सकता।

© अमन कुमार होली

Loading...