पहाड़ रो रहा है
पहाड़ रो रहा है
वह आवाज़
जो तुम सुनते हो
मेघों का गर्जन नहीं है।
न ही यह
किसी हिमखंड का टूटना।
यह मेरे भीतर का क्रंदन है,
जो सदियों की चुप्पी के बाद
दरारों से बाहर आ रहा है।
तुमने मेरी छाती पर
सड़कें नहीं बनाई हैं,
तुमने मेरी नसें काटी हैं
हर विस्फोट एक शल्य-क्रिया है,
बेहोशी के बिना।
हर डायनामाइट
मेरे धीमे, शांत अस्तित्व पर
एक जानलेवा व्यंग्य है।
तुम कहते हो विकास,
और तुम्हारा ‘विकास’
मेरी त्वचा उधेड़ रहा है।
मेरी हरी शर्ट उतारकर
मुझे नंगा कर रहा है,
पत्थरों के ढेर में।
मेरे माथे पर
तुम्हारी कंक्रीट की
बस्तियाँ उग आईं हैं,
जो जानते नहीं
कैसे श्वास ली जाती है,
ऊँचाई पर।
मेरे जंगल!
वे सिर्फ़ पेड़ नहीं थे
मेरी साँस थे,
मेरी संतति थे।
और तुम उन्हें जलाकर,
काटकर,
मुझे अस्थमा दे गए हो।
जब तुम देखते हो
भूस्खलन,
वह मेरी विवशता है,
मेरे आँसू हैं जो गुरुत्वाकर्षण के साथ
नीचे लुढ़कते हैं।
मैं ढह रहा हूँ।
मैं थक गया हूँ
तुम्हारी लालच की ख़ुदाई से।
अगली बार जब तुम बादल देखो
और समझो कि वर्षा हो रही है,
एक पल को रुकना।
हो सकता है,
वह बारिश नहीं,
मेरे सहस्राब्दियों पुराने धैर्य का
पिघलना हो
पहाड़ रो रहा हो।
और तुम,
अपनी इमारतों में सुरक्षित,
सुन ही न पा रहे हो
यह धीमी,
पथरीली,
विराट आह।
© अमन कुमार होली