नदी की आह!
मैं अब वह नदी नहीं हूँ
जिसका नाम तुम
पुरातन क़िस्सों में सुनते हो
या भूगोल की किताबों में पढ़ते हो।
मेरा जल
अब जल नहीं रहा
सिर्फ़ एक थका हुआ बहाव है
जो तुम्हारी अनसुनी शिकायतें ढो रहा है।
तुम कहते हो मैं बहती हूँ,
पर सच कहूँ तो,
मैं अब केवल
रिसती हूँ।
मेरी आह!
वह आवाज़ नहीं है
जो पत्थरों से टकराकर संगीत रचती थी।
वह तो झाग का ढेर है,
सफ़ेद, बदरंग, चिपचिपा मौन।
तुम्हारे घरों की गन्दगी का रसायन,
तुम्हारे कारखानों का ज़हरीला स्नेह।
मेरे भीतर
रेत कम, और प्लास्टिक ज़्यादा है।
सूखी हुई मछलियों की आँखें
और टूटी हुई मूर्तियों की हताशा।
मैं तुम्हारी आस्था हूँ,
और मैं ही तुम्हारा डंपिंग ग्राउंड।
मेरे घाट अब तीर्थ नहीं रहे
वे अपराध के साक्षी हैं।
तुम अपने सारे पाप,
और अपने सारे अधूरे वादे,
मुझमें फ़ेंककर चले जाते हो,
यह सोचकर कि
सब धुल गया।
पर मैं बहकर भी ठहर गई हूँ कहीं
तुम्हारी चेतना के एक कोने में।
मेरा बहाव अब गंतव्य की ओर नहीं,
यह तो केवल एक लंबी, अंतहीन साँस का
छोड़ना है।
और यही मेरी सबसे बड़ी
आह! है।
जो बहती है
पर कभी किसी को सुनाई नहीं देती।