माँ के हाथों की रोटी
रोटी,
सिर्फ़ गेहूँ और
आँच का गणित नहीं है।
रोटी,
जो गोल नहीं भी हो,
माँ के हाथ की हो,
तो केंद्र में रखती है
पुरानी स्मृतियों की उष्मा।
आज, जब मेरी मेज पर
ईएमआई की फाइलें हैं,
ऑनलाइन ग्रोसरी की लिस्टें हैं,
और फ्रिज में रखी बासी ‘डाइट-ब्रेड’,
तब भी
एक अजीब सी विडंबना
टकराती है भीतर।
माॅं की रसोई से
इस आठवीं मंज़िल के अपार्टमेंट तक,
कितनी दूरी नाप ली है हमने!
माँ, अब भी मिट्टी के चूल्हे के धुएँ में
ढूंढती होगी
अपने बेटे की भूख का भूगोल।
वह रोटी, जो फुर्ती थी
ठीक वैसे ही, जैसे
माँ की आँखों में एक उम्मीद
फुला करती थी
हर नए साल, हर नए शहर जाने पर।
उस रोटी में सपाटबयानी थी
कोई फैंसी गार्निश नहीं,
कोई कॉम्प्लेक्स रेसिपी नहीं।
बस नमक, पानी,
और उसके हाथ की मेहनत।
वही सीधी, खरी सच्चाई
जो अब कहीं खो गई है,
इन कॉर्पोरेट कॉरिडोर की चमक में।
याद है, उस पर घी चुपड़ना?
चुपड़ना नहीं, दरअसल
एक पूरा स्नेह का संसार
पोंछ देना था
हमारी सारी कुंठाओं और थकान पर।
आज की रोटी
फ़ास्ट है, रेडी टू ईट है,
पर उसमें संघर्षशील आम आदमी की
वह सहज लय नहीं है,
जो माँ की रोटी बेलने की
थाप में गूँजा करती थी।
वह आवाज़, वह स्पर्श, वह ताप…
सब कुछ अब
‘पुराने भारत’ की
एक धुँधली तस्वीर है,
जिसे मैं अपनी
वॉलपेपर पर नहीं लगा सकता,
पर हाँ, पेट के भीतर
अक्सर एक तीखा यथार्थ
डकार लेता है।
और मैं जानता हूँ
यह सिर्फ़ एक निवाला नहीं है,
यह मेरे समय की असुरक्षित स्मृति है,
जिसे मैं रोज़
एक सूखी साँस के साथ
निगल लेता हूँ।
© अमन कुमार होली