ममता और विरक्ति
ममता और विरक्ति
आँगन के प्राचीन पीपल तले
एक शुष्क पत्र धीरे से झर पड़ा,
मानो माँ की क्षीण होती साँसों का स्वर
धरा पर बिखर गया हो।
माता की आँखों में संचित नीर
अनकहे प्रश्नों की धारा-सा उमड़ता है,
पर अधरों पर मौन की कठोर मुहर लगी है।
बेटा समीप होते हुए भी
अपरिचित पथिक-सा प्रतीत होता है।
कभी जिसकी गोद जीवन का शीतल आश्रय थी,
आज वही गोद रिक्त पड़ी है—
स्मृतियों की परछाइयों से आच्छादित।
वर्षों का वात्सल्य मानो
एक निराधार आर्तनाद बन गया है।
बेटा, उत्तरदायित्व और संकोच के जाल में
बँधा हुआ,
माता की ओर दृष्टि तो उठाता है,
पर चरण नहीं बढ़ा पाता।
उसका हृदय विदीर्ण है,
किन्तु वाणी निःशब्द।
माँ और पुत्र—
दोनों एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं,
पर परिस्थितियों की आँधियाँ
उन्हें दूर-दूर कर देती हैं।
ममता अपनी जगह अटल है,
और पुत्र का मन,
अभिलाषाओं और कर्तव्यों के बीच
दग्ध होता रहता है।
हे समय!
कभी तो वह क्षण लौट आए,
जब यह दूरी विलीन हो
और हृदय से हृदय
निर्विघ्न आलिंगन पा सके।