उलझन
उलझन में मत घबराना
ये तो माया की काया है
अलसाकर थकान भरता
हृदय बोझिल कर देता है
मुखरित मुख चन्द्र रजनी
विकल चंचल मन करता
सुखसपनों की प्यासी ये
अमन चैन पात्र लुढ़काते
उदासी छाया ले आता है
नयन पट भींगाया करता
खुश पे घात प्रहार करके
छिप जाता दारूण गलियां
जाल फेंक हृदय लहरों पर
छटपट घट घट घंटे तड़पा
मधुर पावन तन घबड़ाता
उलझन रंग रूप विहीन
विविध प्रकारों से बिखरता
दिल दिमाग को उलझाता
प्यारे ! हम हैं धरती के सपूत
माता की छाया है माथे पर
जड़ता छोड़ बढ़ गमता से
सुलझन का ख़ोजकर मर्ज
ज्यों हीं कभी उलझन हो
त्यों ही बैठ विहँस सोचों
बिखरी उलझन सुलझाओ
मधुर दिलों को छू लेता है
गुलाब खिलता है कांटों पे
पर गुलाब कब उलझता है
हे राही ! चलें सद्कर्म से
सुलझा ही सकून पाता है ।
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टी .पी . तरुण